scriptInterview: उदयपुर में प्रवासरत आचार्य पुलक सागर से पत्रिका की खास बातचीत | Acharya Pulak Sagar special interview | Patrika News
उदयपुर

Interview: उदयपुर में प्रवासरत आचार्य पुलक सागर से पत्रिका की खास बातचीत

Interview: पत्रिका से खास बातचीत में दिगंबर जैन आचार्य पुलक सागर ने कहा- मोबाइल का सदुपयोग वरदान है और दुरूपयोग अभिशाप है..।

उदयपुरJul 12, 2025 / 08:41 pm

राजीव जैन

Acharya Pulak Sagar

Acharya Pulak Sagar (फोटो सोर्स- पत्रिका)

Interview: आज की भागदौड़ भरी जिंदगी में मानसिक शांति चाहिए तो संयम, अपरिग्रह और सहअस्तित्व को अपनाना होगा। धर्म कोई दिखावे की चीज नहीं, वह जीवन का बीमा है, जितना जरूरी भोजन है उतना ही भजन भी जरूरी है। जैन मुनि आचार्य पुलक सागर ने पत्रिका से विशेष बातचीत ये बातें कहीं। इसके साथ ही उन्होंने ये भी कहा कि मोबाइल और सोशल मीडिया को कोसने के बजाय उसका सदुपयोग करें। मोक्ष की दिशा गृहस्थ के लिए भी खुली है, बशर्ते वह सोच, चरित्र और श्रद्धा को शुद्ध रखे। तीर्थों की पवित्रता बचाने, जैन मुनियों को सुरक्षा देने और जैन समाज को एकजुट होकर आत्मसम्मान के साथ जीने का भी आह्वान किया। पढ़िए पूरा इंटरव्यू…
प्रश्न- आत्मा की शुद्धि और मोक्ष की दिशा में एक सामान्य व्यक्ति कैसे शुरुआत कर सकता है?
जवाब- जैन दर्शन के अनुसार गृहस्थ और साधुओं दोनों का मोक्ष मार्ग है। गृहस्थ सीधा मोक्ष नहीं पा सकता, परंपरा से पाता है। गृहस्थ सात्विक तरीके से जीवन जिये, मुख्य रूप से दर्शन, ज्ञान, चरित्र। दर्शन का मतलब सोच सही रखे, ज्ञान परिमार्जित करें और चरित्र को स्वच्छ रखे और धर्म से जुड़कर चले तो मोक्ष मार्ग है। श्रावक को एक गृहस्थ जीवन में ज्यादा कुछ नहीं करना बहुत बड़ी तपस्या, त्याग, उपवास ये सब साधना करे तो भी ठीक और नहीं करे तो भी चलेगा। गृहस्थ या सामान्य आदमी सिर्फ दो काम करे, अपने आराध्य की आराधना और दूसरा दान तो भी मोक्ष प्राप्ति कर सकता है। ये बात जैन संत दिगंबर जैन आचार्य पुल सागर ने पत्रिका से खास बातचीत के दौरान कही। पढ़िए बिंदूवार पूरी बातचीत…
प्रश्न- वर्तमान समय में अगर कोई एक जैन सिद्धांत पूरे देश को अपनाना हो तो वह क्या हो?

जवाब- अमन-चैन शांति, सुकून के लिए सह अस्तित्ववाद जिसे अनेकांत कहा है। सबका इस जगत में अस्तित्व है। मैं ही हूं ऐसा जैन धर्म नहीं कहता है। मैं भी हूं, तुम भी हो, मैं भी जिऊं, तुम भी जियो, तुम्हारा भी कल्याण हो, मेरा भी कल्याण हो ये जैन धर्म कहता है। जो सत्य है, वह मेरा है जो मेरा है वह सत्य है ऐसा जैन दर्शन नहीं कहता। जैन दर्शन कहता है जो भी सत्य है वह मेरा है। एक विपरीत सोच होती है कि जो मैं हूं वही सत्य है ऐसा जैन दर्शन नहीं कहता।
प्रश्न- आधुनिक जीवनशैली में संयम और अपरिग्रह की भावना कैसे संभव है?
जवाब- अपरिग्रह का मतलब जितनी मुझे जरूरत है उतना रखूंगा और जो अतिरिक्त होगा उसे परोपकार में लगाऊंगा। अतिरिक्त जोडूंगा यह नहीं, अतिरिक्त कमाऊंगा, मुझमें ताकत है, लेकिन अतिरिक्त को दान में लगाऊंगा। इससे समाज का कल्याण होगा, धर्म का कल्याण होगा। मेरी आवश्यकता कितनी है यह संयम है और जो ज्यादा है उसे दान में लगाना यह अपरिग्रह है।
प्रश्न- मोबाइल, सोशल मीडिया और आधुनिकता के दौर में मानसिक शांति कैसे पाई जा सकती है?
जवाब- मोबाइल तो आदमी की लाइफ का हिस्सा बन चुका है। इससे आदमी मुक्त नहीं हो सकता। चाहे आप कितनी भी भाषणबाजी कर लो, कितना भी मां-बाप को समझा लो कि बच्चों को मोबाइल नहीं दें। यह संभव नहीं है। अब जो लोग कहते हैं कि मोबाइल से लोग बिगड़ते हैं ऐसा नहीं है। यदि मोबाइल से ही लोग बिगड़ते तो फिर दुर्योधन को चीरहरण किसने सिखाया, द्रोणाचार्य ने कौरव और पांडवों दोनों को ही पढ़ाया। उन्होंने तो नहीं सिखाया था कि कुल वधू का इस तरह से अपमान करना है। धृतराष्ट्र ने भी नहीं सिखाया, वह केवल सिंहासन चाहते थे, पर यह नहीं चाहते थे। शकुनी मामा भी नहीं चाहता था कि आप नारी का ऐसा अपमान करो, हां उन्हें राज्य और सत्ता की ईच्छा थी। तो दुस्सासन और दुर्योधन को किसने सिखाया उस समय तो मोबाइल नहीं था। रावण को किडनेपिंग किसने सिखाई। सतियों को आग में फेंक देना यह कौन सिखाता था। पांच पाप पहले भी थे, यदि नहीं होते तो महावीर किसे समझा रहे थे। मोबाइल के कारण पांच पाप नहीं आए हैं, पांच पाप पहले से फैले हैं। मोबाइल का सदुपयोग वरदान है, दुरूपयोग अभिशाप है। इसका सदुपयोग करते हैं तो मोबाइल मेडिटेशन, शांति, योगा, ज्ञान अर्जन और विकास में सहायक है। मैं यह सोचता हूं कि मोबाइल से बच्चे नहीं बिगड़ते, बिगड़े हुए बच्चे ही मोबाइल पर गलत देखते हैं। जो अच्छे है वे अच्छी चीजें देखते हैं।
प्रश्न – धनार्जन और धर्मार्जन दोनों में कितना और कैसे संतुलन रखें?
जवाब- धन को धर्म में लगाओ दोनों अर्जन हो जाएंगे। धनार्जन और धर्मार्जन दोनों हो जाएगा।

प्रश्न- क्या आज का जैन समाज बाह्य आडंबर में उलझ रहा है? आप इसे कैसे देखते हैं?
जवाब- पैसे को क्या किया जा सकता है, पैसा यदि किसी ने कमाया है तो उसकी किस्मत में है तो वह क्या करेगा। क्या एक अमीर भिखारी जैसी शादी करे, तो उसने पैसे क्यों कमाए। एक आदमी साइकिल पर घूमे तो उसने पैसा क्यों कमाया, साइकिल पर ही घूमना था तो वह कमाता क्यों? तो अपने पैसे को कमाकर यदि उसने उपभोग नहीं किया तो फिर कायके लिए कमा रहा वह पैसे। उसके साथ-साथ वह लोगों की आवश्यकताओं का भी ध्यान रखे यह ठीक है, लेकिन यदि आपने करोड़ों रुपए कमाए तो आप अपनी बेटी की शादी भिखारी की तरह करें, क्यों करेंगे आपके पास है ना, ऐसा कुछ नहीं है हमारे पैसे के दिखावट करने से समाज के अन्य लोगों को परेशानी होती है, जो जिस लेवल का होता है उसे वैसा ही वर मिलता है उसे वैसे लोग मिलते हैं। अपन सोच सकते हैं कि हमारी बेटी की शादी रईस खानदान में हो कायको होगी। हाई कैटेगरी, मीडियम कैटेगरी और लो कैटेगरी के लोग अलग हैं। संसार की व्यवस्था ही ऐसी है।
प्रश्न- सम्मेद शिखर या अन्य तीर्थ स्थलों को पर्यटन स्थल घोषित करने के सरकारी निर्णयों पर आप क्या दृष्टिकोण रखते हैं? क्या इससे तीर्थ की पवित्रता भंग होती है?
जवाब- सम्मेद शिखर को पर्यटन स्थल बना रहे थे। इससे राजस्व की बढ़ोत्तरी होगी, इससे जैन समाज को किसी प्रकार का लाभ नहीं होगा। तीर्थ की पवित्रता नष्ट होगी, भेदभाव मिटेगा, जैन दर्शन के अलग विचार हैं, अलग त्याग है, अलग संयम है, अलग सोच है, ऐसा नहीं की दूसरे धर्मों के पास नहीं है, वहां भी है, लेकिन जैन धर्म की विचारधाराएं थोड़ी अलग हैं वह डिस्टर्ब होंगी तो हमारे जैनतीर्थ और आस्था से खिलवाड़ होगा तो हमें इसकी जरूरत नहीं है। सरकार क्यों हमारे तीर्थ क्षेत्रों को पर्यटन स्थल बनाएगी, हम खुद बना लेंगे। हमारे तीर्थ को अगर आकर्षक बनाना है तो बना लेंगे हमें सरकार की आवश्यकता नहीं है, वहां फिर सब चीजें इस तरह से हो जाएं कि हमारे सिद्धांतों की हत्याएं होने लगें तो जहां कहीं भी ऐसी आवाज जैन तीर्थों के लिए उठती है तो जैसे सम्मेद शिखर के लिए हम सब एक हुए हमेशा आवाज उठाएं। पर्यटक स्थल बनाना है दूसरी जगह बना लो ना हमारे तीर्थ पर क्यों बनाना है।
प्रश्न- क्या आपको लगता है कि जैन समाज की आस्था और तीर्थस्थल नीति निर्माण में पर्याप्त प्रतिनिधित्व पा रही है?
जवाब- जैन समाज का प्रतिनिधित्व आवश्यकता पड़ने पर मिलता है। 24 घंटे थोड़ी होता है, सबके दिमाग में है कि जैन धनपति है, अर्थ सम्पन्न है कुछ भी कर सकते हैं। उन्हें बना बनाया स्थान मिल जाता है, पहाड़ों पर रास्ते मिल जाते हैं हजारों लोगों का आना-जाना रहता है, तो उन्हें बैनिफिट दिखता है, तो वे अपनी टीम बनाकर राजस्व लेंगे। वोट बैंक भी एक बड़ा कारण है कि जो आसपास रहते हैं, वह उन स्थानीय नेताओं का वोट बैंक है, वहां का व्यापार बढ़ेगा। अन्य तीर्थ तो छोटे-छोटे होते हैं, जैन तीर्थ ही विशाल पहाड़ों पर होते हैं। उन पर जाने की सुविधा तो वहां पहले से ही दे देते हैं। हमारी आवाज उठाने वाले संसद और विधानसभा में नहीं है। थोड़े बहुत हैं तो उनकी सुनता कौन है। पूरे जैन एक तरफ होकर वोट नहीं भी डालो तो भी उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता। जैन को इतना तो करना चाहिए कि हम सरकार बना नहीं सकते, लेकिन आवश्यकता पड़ने पर गिरा सकते हैं। यह ताकत हमें आवश्यकता पड़ने पर दिखाना चाहिए।
प्रश्न- गत कुछ वर्षों में राह चलते मुनियों पर हमले हो रहे हैं, इनको रोकने के लिए समाज और सरकार को क्या कदम उठाने चाहिए?
जवाब- कदम तो यही है कि दिगंबर संत कमरों में बंद नहीं रह सकता। इन संतों का कोई स्थायी मठ और मंदिर नहीं होता। सड़कों पर ही विचरण करेंगे। पूरे देश में जैन संत ही ऐसे हैं जो पैदल चलते हैं। बाकि सभी संत वाहनों का उपयोग करते हैं। इसके लिए समाज को जागरूक होना पड़ेगा कि हमारा संत अकेला जा रहा है तो उसके लिए ग्रुप बनने चाहिए। उनके साथ लोग होने चाहिए। दुर्घटना और हमले जैसी घटनाएं संतों के अकेले होने पर ही होती हैं। तो समाज की भी जागरूकता होनी चाहिए और प्रशासन को हमें पुलिस सुरक्षा देनी चाहिए कि हम अल्पसंख्यक है। जब आप अन्य अल्पसंख्यकों की इतनी मदद करते हो तो हमारी भी मदद करो। सरकार पुलिस देगी ना।
प्रश्न- अभी धार्मिक कट्टरता का माहौल चल रहा है, ऐसे माहौल में जैन धर्म की अहिंसा का मूल सिद्धांत किस तरह समाधान दे सकता है?
जवाब- अहिंसा का मूल सिद्धांत कायरता नहीं होता। कोई तलवार उठा रहे हैं तो हम ढाल उठा सकते हैं। यह नहीं कि अपना शीश कटा सकते हैं कि तू आ और काटकर चला जा। कायरता नहीं होती कोई तलवार से अटैक कर रहा है तो हमें ढाल उठानी चाहिए और ढाल से नहीं मान रहा है तो फिर तलवार उठाना चाहिए। जैन दर्शन की अहिंसा कहती है कि वार नहीं करो, लेकिन प्रतिकार तो करो। नहीं तो यह कायरता हो जाएगी। भरत, बाहुबली भी जमीन के लिए लड़े। अहिंसा का लबादा ओढ़कर कायरता नहीं आनी चाहिए। शौर्य और पौरूष हमारे अंदर होना चाहिए। तो मैं यह चाहता हूं कि जैन समाज अपनी एक सेना तैयार करे कि तुम्हारे संतों पर, धर्म पर, लोगों पर कोई अटैक करे तो सेना तैयार होनी चाहिए। जैनों का आरएसएस क्यों नहीं है उनका भी बनना चाहिए।
प्रश्न- दिगंबर और श्वेतांबर परंपराओं में कई मामलों में असहमति रहती है, ऐसे में इनमें एकता कैसे आए?
जवाब– जिन बिंदुओं पर एकता आ सकती है उन पर आएगी। वो कपड़े उतारेंगे नहीं, हम कपड़े पहनेंगे नहीं। इन प्वाइंट पर तो एकता सोचना भी नहीं चाहिए, लेकिन दो-तीन प्वाइंट ही हमारे बिखराव के कारण नहीं है। कई ऐसे हैं जो अनावश्यक बिखराव के कारण है। उन बिंदुओं पर हमें एक हो जाना चाहिए। संत को संत से मिलना चाहिए। आपस में रोटी-बेटी व्यवहार भी होने लगा है। तो ये रिश्ते बनेंगे, तो फिर एकता आएगी। परिवार के जुड़ने से समाज एक होगा।
प्रश्न- दीक्षा और संलेखना को लेकर कोर्ट में विवाद होता है इसे आप त्याग की चरम सीमा मानते है या लोग इसे गलत समझ रहे हैं?
जवाब- अभी विवाद हुआ था इसके बाद न्यायालय ने कहा कि यह सही है। आत्महत्या चीज अलग है और संथारा चीज अलग है। आत्महत्या होती है हताश, निराश थके हुए होपलैस व्यक्ति की। हम संथारा दुनिया से, जीवन से, अपने आप से हार कर नहीं लेते, अपनी इंद्रियों को जीतने के लिए लेते हैं। हमारी खुशी है, हमारी इच्छा है, हम ऐच्छिक मरण चाहते हैं। संथारा हमारी मजबूरी नहीं है, जीवन का आनंद है, मृत्यु महोत्सव है, हम मृ़त्यु को सामने आता हुआ देखते हैं। हम मृत्यु से साक्षात्कार करते हैं। मौत से आंख मूंदकर थोड़े मरते हैं।
प्रश्न- आपने पारस से पुलक होने में अपने संन्यास जीवन के दौरान समाज में क्या प्रमुख परिवर्तन देखें हैं?
जवाब- समाज में तो सबसे बड़ी परेशानी एकल परिवार की आ रही है। एक ही बेटा सबसे बड़ी समस्या है। जैनों में एक समस्या यह भी आ रही है कि वे बेटे-बेटी से व्यापार नहीं करवा रहे, नौकरी करवा रहे हैं। जहां नौकरी होगी, जॉब होगा वहां परिवार बंट जाएगा। बच्चा अपने-आप मां-बाप से अलग हो जाएगा करने की जरूरत नहीं होगी। व्यापार होगा तो बच्चा साथ में रहेगा। सबसे ज्यादा जो हम पढ़ाई की तरफ भाग रहे हैं ये पढ़ाई ने हमें क्या दिया है, डिग्री दी है। बच्ची एमबीए, सीए है लेकिन उसे मां-बाप से बात करने की तमीज नहीं है, उसे बड़े से बात करने की तमीज नहीं है, उसके पास व्यवहारिकता नहीं है। एक लड़की को खाना बनाना नहीं आता, तो डिग्रियां पेट भरेंगी क्या? मैं यह चाहता हूं कि हम वैश्य हैं, व्यापार ही हमें शोभा देता है, यही ऋषभदेव की आज्ञा है। नौकरी हमारा काम नहीं है। नौकरियों पर जो समाज की होड़ लगी है वह समाज के लिए नुकसानदायक है। उसके कारण बच्चा एक-एक हो रहा है, लेट शादियां हो रही है, पढ़ाई की वजह से, जॉब की वजह से। वह लेट शादी इतने आर्गुमेंट बढ़ाती है, कि तलाक की नौबत आ जाती है। एक-दूसरे के लिए हम समर्पित ही नहीं हो पाते।
प्रश्न- आप अपने प्रवचन में कहते हैं कि ‘धर्म जीवन का बीमा है’ इसे युवाओं के लिए आसान तरीके से बताइये?
जवाब- देखो दिमाग को इतना ही बोलो कि जन्म लिया है, पढ़ना जरूरी है, खेलना जरूरी है, व्यापार करना जरूरी है, विवाह जरूरी है, बच्चे पैदा करना जरूरी है, मकान बनाना जरूरी है तो इसमें एक पार्ट धर्म भी जरूरी है इसको एड करो। मैं यह नहीं कहूंगा कि यह मत करो, जितना जरूरी भोजन है उतना जरूरी भजन भी है, जितना जरूरी धन है, उतना जरूरी धर्म भी है, धर्म को भी साथ लेकर के चलो।
प्रश्न- आप युवाओं को क्या संदेश देना चाहेंगे?
जवाब- जैन सिद्धांत अहिंसा, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह यह कोई जैनियों की बपौती नहीं है, यूनिवर्सल है। सबके लिए उपयोग की चीजे हैं। कौनसा धर्म कहता है कि हिंसा करो, कौनसा धर्म कहता है कि गुस्सा करना चाहिए, कौनसा धर्म कहता है व्याभिचार होना चाहिए। हर धर्म मना करते हैं। हमारे देश की सबसे बड़ी दुर्दशा यह है कि ग से गणेश पढ़ाई तो एक पक्ष कहता है कि हम नहीं पढ़ेंगे, यह साम्प्रदायिकता है, ग से गणधर पढ़ाओ तो दूसरा कहता है कि साम्प्रदायिकता है, ग से गधा पढ़ाओ तो सब सहमत हैं। तो शिक्षा वो ही है गधे में तो पूरा देश एक है गणेश और गणधर में एक नहीं है। जैन शिक्षा के बिना तो शिक्षा ही नहीं है, ये दर्शन तो जैनों का ही दर्शन है।

Hindi News / Udaipur / Interview: उदयपुर में प्रवासरत आचार्य पुलक सागर से पत्रिका की खास बातचीत

ट्रेंडिंग वीडियो