वैज्ञानिकों का मानना है कि इसी क्रिया के दौरान उस आदमी ने दुनिया की सबसे पुरानी पूरी इंसानी उंगली की छाप छोड़ दी — और संभवतः यूरोप की सबसे पुरानी ‘पोर्टेबल आर्ट’ (चलित कला) भी बनाई।
स्पेन के पुरातत्वविदों, भूवैज्ञानिकों और फॉरेंसिक विशेषज्ञों की एक टीम ने इस खोज पर करीब तीन साल तक काम किया। 2022 में, सेगोविया के पास एक गुफा की खुदाई के दौरान उन्हें यह पत्थर मिला। इसकी लंबाई लगभग 20 सेंटीमीटर है, और यह किसी औजार जैसा नहीं लग रहा था।
पत्थर पर बना लाल बिंदु मैड्रिड की कॉम्प्लुटेन्से यूनिवर्सिटी के पुरातत्वविद डेविड अल्वारेज़ अलोंसो ने कहा, “इस पत्थर की अजीब आकृति और उस पर बना लाल बिंदु हमारी नजर में आ गया। हम सभी सोच रहे थे — यह तो एक चेहरे जैसा दिखता है।”
टीम ने सोचा कि यह कोई सामान्य बिंदु नहीं, बल्कि किसी इंसान द्वारा सोच-समझकर बनाई गई चीज़ है। उन्होंने वैज्ञानिक पुलिस से संपर्क किया, जिन्होंने पुष्टि की कि यह लाल बिंदु एक उंगली से लगाया गया था — और यह एक वयस्क पुरुष की उंगली की छाप हो सकती है।
इस छाप में पाए गए लाल रंग में लौह ऑक्साइड और मिट्टी के खनिज थे। यह पिगमेंट न तो गुफा के भीतर और न ही बाहर किसी और जगह पर मिला, जिससे साफ है कि यह रंग कहीं और से लाया गया था।
प्रतीकात्मक सोच का प्रमाण वैज्ञानिकों का कहना है कि यह खोज यह दिखाती है कि निएंडरथल भी प्रतीकात्मक और कलात्मक सोच रखने में सक्षम थे — यानी कि इंसानों (Homo sapiens) की तरह ही वे भी कला को अभिव्यक्ति का माध्यम बना सकते थे।
वैज्ञानिकों के अनुसार, इस पत्थर पर बनी छाप यह दर्शाती है कि प्राचीन मानवों में तीन महत्वपूर्ण मानसिक प्रक्रियाएँ मौजूद थीं — किसी छवि की कल्पना करना, उसे सोच-समझकर बनाना, और उसमें अर्थ देना। यही प्रक्रियाएँ किसी प्रतीकात्मक कला की नींव होती हैं।
क्या निएंडरथल पहले कलाकार थे? वैज्ञानिकों का कहना है कि अगर यही छाप 5,000 साल पुरानी होती और इसे किसी होमो सेपियन्स ने बनाया होता, तो इसे बिना किसी संदेह के कला का रूप माना जाता। लेकिन जैसे ही इसमें निएंडरथल का नाम आता है, बहस शुरू हो जाती है।
डेविड अलोंसो कहते हैं, “हमने अपनी बात साफ़ रख दी है, अब बहस जारी रहेगी। लेकिन हमें लगता है कि कोई, बहुत समय पहले, इस पत्थर में कुछ खास देख रहा था — और उसने उसे अर्थ देने की कोशिश की।”
वे कहते हैं, “निएंडरथल भी इंसान ही थे। हम उन्हें अपने से अलग क्यों समझें? अगर वे किसी चेहरे जैसी आकृति को देख सकते थे, तो शायद वे भी उतनी ही गहराई से सोचते थे जितना हम आज सोचते हैं।”