आज का कंक्रीट सीमेंट, रेत, बजरी और पानी मिलाकर बनाया जाता है। लेकिन रोमन काल में बिल्डरों ने चूना-पत्थर, ज्वालामुखी की राख (जिसे पॉज़ोलान कहा जाता है), और पुराने ढांचों का मलबा मिलाकर कंक्रीट बनाया था।
“हमारी उम्मीद के उलट, अगर हम आज की तकनीक से रोमन कंक्रीट बनाएं तो उसमें उत्सर्जन या ऊर्जा की खपत में ज्यादा कमी नहीं आएगी।”
हालांकि कार्बन उत्सर्जन में ज्यादा फर्क नहीं आया, लेकिन रोमन कंक्रीट से बनने वाले अन्य हानिकारक प्रदूषकों—जैसे नाइट्रोजन ऑक्साइड और सल्फर ऑक्साइड—में काफी कमी देखी गई। ये गैसें इंसानी सेहत के लिए खतरनाक मानी जाती हैं।
“रोमन कंक्रीट से हम ये सीख सकते हैं कि सामग्री का ऐसा इस्तेमाल कैसे करें जिससे इमारतें ज़्यादा समय तक टिकें। क्योंकि टिकाऊपन ही असली सततता (सस्टेनेबिलिटी) है।” टिकाऊ कंक्रीट, कम बर्बादी
अब निर्माण क्षेत्र में यह समझ बढ़ रही है कि सिर्फ कम उत्सर्जन नहीं, बल्कि ज़्यादा टिकाऊ निर्माण भी जरूरी है। अगर एक बार बना हुआ ढांचा लंबे समय तक चले, तो निर्माण की कुल पर्यावरणीय लागत घट जाती है।
“जब हम कंक्रीट की सेवा अवधि यानी उसकी उपयोगी उम्र पर ध्यान देते हैं, तभी हमें इसके असली फायदे नजर आते हैं।” रोमन बनाम आधुनिक कंक्रीट – तुलना आसान नहीं
हालांकि तुलना करना आसान नहीं है, क्योंकि आधुनिक कंक्रीट का उपयोग सिर्फ करीब 200 सालों से हो रहा है, जबकि रोमन कंक्रीट से बने ढांचे 2000 साल से टिके हैं।
“स्टील की जंग कंक्रीट को खराब करने का सबसे बड़ा कारण है, इसलिए तुलना करते वक्त बहुत सावधानी जरूरी है।” भविष्य के लिए सबक
शोधकर्ता अब असली स्थितियों में रोमन और आधुनिक कंक्रीट की ताकत और टिकाऊपन की तुलना करते रहेंगे। उनका उद्देश्य है—अतीत की तकनीकों से सीखकर आज की जलवायु संबंधी समस्याओं का हल निकालना।
“रोमन तकनीकों से हम बहुत कुछ सीख सकते हैं। अगर हम उनकी समझ को आज की आधुनिक सोच से जोड़ सकें, तो हम एक ज़्यादा टिकाऊ निर्माण व्यवस्था बना सकते हैं।” यह पूरा अध्ययन iScience नामक जर्नल में प्रकाशित हुआ है।