उपराष्ट्रपति ने यह बातें पुडुचेरी विश्वविद्यालय में एक समारोह में कही। उन्होंने कहा कि संस्कृत आज वैश्विक स्तर पर महत्वपूर्ण है। तमिल, तेलुगु, कन्नड़, मलयालम, ओडिय़ा, मराठी, पाली, प्राकृत, बंगाली, असमिया — ये 11 भाषाएं हमारी शास्त्रीय भाषाएं हैं। संसद में 22 भाषाओं में सदस्य संवाद कर सकते हैं। बच्चों, हमारी भाषाएं समावेशिता की प्रतीक हैं। सनातन धर्म हमें साथ रहने की, एकत्व की शिक्षा देता है। तो फिर यह समावेशिता कैसे विभाजन का कारण बन सकती है? उन्होंने कहा कि भारत की शैक्षणिक भूगोल और इतिहास, तक्षशिला, नालंदा, मिथिला, वल्लभी जैसे महान शिक्षा केंद्रों से सजे हुए थे। उस कालखंड में इन संस्थानों ने दुनिया के सामने भारत को परिभाषित किया। दुनिया भर के विद्वान यहां ज्ञान साझा करने और भारतीय दर्शन को समझने आते थे। परंतु, कुछ तो गलत हुआ। नालंदा की नौ मंजिला पुस्तकालय 1300 साल पहले करीब 1190 के आसपास बख्तियार खिलजी ने अमानवीयता और बर्बरता का प्रदर्शन किया। उसने सिर्फ किताबें नहीं जलाईं, बल्कि भिक्षुओं की हत्या की, स्तूपों को नष्ट किया और भारत की आत्मा को रौंदने का प्रयास किया। यह जाने बिना कि भारत की आत्मा अविनाशी है। आग कई महीनों तक जलती रही। नौ लाख ग्रंथ और पांडुलिपियाँ जलकर भस्म हो गईं। नालंदा केवल एक विचार का केंद्र नहीं था, वह मानवता के लिए ज्ञान का जीवंत मंदिर था।
हम केवल मतभेद के लिए मतभेद करते हैं, समाधान के लिए नहीं
धनखड़ ने कहा कि राजनीतिक व्यवस्था की बात करें तो हम केवल मतभेद के लिए मतभेद करते हैं, समाधान के लिए नहीं। किसी और के द्वारा दी गई अच्छी बात भी हमें तभी गलत लगती है क्योंकि वह हमारे विचार से नहीं आई। हम राजनीतिक तापमान बढ़ाने को आतुर हो गए हैं। जलवायु परिवर्तन तो वैसे भी तापमान बढ़ा ही रहा है। उन्होंने सभी राजनीतिक नेताओं से राजनीति का तापमान घटाने की अपील की। उन्होंने कहा कि टकराव की कोई जगह नहीं होनी चाहिए। संविधान सभा ने हमें विघटन और अवरोध का रास्ता नहीं सिखाया है। आज जब भारत उन्नति के मार्ग पर है और सारी दुनिया हमारी ओर देख रही है।