बुजुर्गों की चुप्पी में छिपी कहानियां कौन सुनेगा?
सिद्धायनी जैन, स्वतंत्र लेखिका एवं स्तंभकार


मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। पृथ्वी पर प्राय: सभी जीवों को अपने जैसे प्राणियों का साथ लुभाता है इसीलिये वो समूह में रहते हैं। जिस शेर के बारे में माना जाता है कि वो अपने इलाके में किसी दूसरे शेर को बर्दाश्त नहीं कर सकता, वह भी अपने परिवार के साथ जंगलों या अभयारण्यों में विचरण करते हुए देखा जा सकता है। परिवार समाज की प्रारंभिक इकाई है। भारत में तो लंबे समय तक संयुक्त परिवार की परंपरा रही है। एक ही छत के नीचे तीन-तीन, चार-चार पीढिय़ां परस्पर सौहार्द्र से रहा करती थीं। लेकिन जीवनशैली के बदलाव ने न केवल संयुक्त परिवारों को तोड़ा है बल्कि मनुष्य को बहुत एकाकीपन में भी धकेल दिया है। आज किसी कठिन परिस्थिति में व्यक्ति या परिवार को अपने किसी आत्मीय के साथ का सुख चाहिए होता है, तब तमाम भौतिक उपलब्धियों के बावजूद वो परिवार या व्यक्ति स्वयं को बहुत अकेला पाता है। यों कहने को सबके पास मित्रों और परिचितों का पर्याप्त ‘सर्किल’ होता है लेकिन मनुष्य अपने दुख को सबके साथ कहां बांट पाता है। हमारे नीतिकारों ने भी कहा है कि अपनी कमजोरियां, अपने दुख, अपनी पीड़ाएं सबके साथ साझा नहीं करनी चाहिए।
बिखरते हुए परिवारों का सबसे ज्यादा दंश समाज में बुजुर्ग झेल रहे हैं। खासकर छोटे शहरों में रहने वाले सीनियर सिटीजन। बच्चे पढ़ाई के बाद चमकदार कॅरियर की तलाश में बड़े शहरों या विदेश की ओर मुंह कर लेते हैं और फिर वहीं अपने परिवार के साथ बस जाते हैं। अपनी संवेदनाओं, अपनी पीड़ाओं, अपनी अपेक्षाओं और अपनी आवश्यकताओं के साथ बुजुर्ग उनकी प्राथमिकताओं में बहुत पीछे छूट जाते हैं। बड़े त्योहारों पर अपने बच्चों के आने की प्रतीक्षा में अकेले रह रहे बुजुर्ग अपनी उम्र के साथ जूझते रहते हैं, कभी अवसादपूर्वक-कभी उल्लासपूर्वक। उम्र बढऩे के साथ आखिर शरीर की सामथ्र्य चूकने लगती है। बीमारियां घर कर लेती हैं। जरूरत के छोटे-मोटे सामानों की आपूर्ति के लिए भी बुजुर्ग अपने आस पड़ौस के बच्चों या किशोरों की मनुहार पर विवश हो जाते हैं। बेशक, कुछ मार्केटिंग कंपनियां आजकल जरूरत का हर सामान एक ऑर्डर पर घर की दहलीज तक पहुंचा देती है लेकिल आप सब बुजुर्ग लोगों से तकनीक में इतना पारंगत होने की उम्मीद भी तो नहीं कर सकते। इसके अलावा उनके अपने डर होते हैं जो उन्हें तकनीक के पास जाने से रोकते हैं। मसलन, यह डर तो सबसे बड़ा है कि यदि कोई गलत फाइल या एप फोन में आ गया तो उनका बैंक अकाउंट खाली हो जाएगा। यह डर बेबुनियाद भी तो नहीं।
फिर बुजुर्गों की एक बड़ी पीड़ा यह भी होती है कि उनके मन की बात सुनने वाला आसपास कोई नहीं होता। वो अपने अनुभव, अपना जीवनदर्शन नई पीढ़ी के साथ साझा करना चाहते हैं, लेकिन सुनने की फुर्सत किसके पास है? यह स्थिति घोर निराशा देती है। जो सृजनधर्मी होते हैं, वो किसी तरह अपनी भड़ास को सर्जनात्मक तरीके से निकाल लेते हैं, लेकिन कोई भी विकल्प अपनों के साथ की कमी के दर्द को दूर नहीं कर पाता। शायद इसीलिए कुछ शहरों में तो लोगों ने बुजुर्गों की इस जरूरत को अपनी आमदनी का माध्यम बना लिया है। अब सामथ्र्यवान बुजुर्ग ऐसे लोगों को प्रति घंटे की दर से पारिश्रमिक पर बुलाने लगे हैं, जो उनसे बात करे- उनकी बात सुन सके। उपेक्षा के अंधेरे में धकेला गया अनुभव इस तरह से अपने लिए कुछ उजाला तलाशने का काम करता है। उधर बढ़ती उम्र के साथ स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं भी बढ़ती हैं। किसी आपात परिस्थिति में अड़ौसी-पड़ौसी से मदद मांगने जाना तक कई बार संभव नहीं होता।
यूरोप के कुछ शहरों में ऐसे संगठन हैं जिनके सदस्य स्वेच्छा से ऐसे बुजुर्गों की मदद के लिए अपना समय देते हैं। अब भारत में भी ऐसे संगठनों की संख्या बढऩे लगी है। कुछ शहरों में ‘टाइम बैंक ऑफ इंडिया’ की स्थापना ऐसा ही प्रयास है। इसके सदस्य दूसरों की मदद के लिए समय देते हैं। इस समय का हिसाब रखा जाता है। यानी यह समय बाकायदा उनके खाते में जमा होता है और जरूरत पडऩे पर दूसरे सदस्य अपना समय देकर उसका भुगतान करते हैं। यह एक अच्छी सामाजिक पहल है। हम किसी युवा से यह उम्मीद नहीं कर सकते कि वह जीवन में अपनी समृद्धि की संभावनाओं को केवल इसलिए त्यागेगा क्योंकि उसे अपने गृहनगर या अपने गांव/कस्बे में ही रहना है। लेकिन हम अपने आसपास रह रहे बुजुर्गों की बेहतरी के प्रति संवेदनशील तो हो सकते हैं।
पुराने जमाने में जब किसी परिवार में शादी होती थी तो मौहल्ले भर की औरतें कभी दाल बीनने, कभी पापड़ बनाने जैसे कामों के लिए उस परिवार के सदस्यों के साथ एकत्र हो जाती थीं। यानी उल्लास किसी एक परिवार का नहीं होता था। एक घर की बेटी सारे गांव/ कस्बे की बेटी होती थी। ….तो क्या हम उन ही सामाजिक मूल्यों को एक बार फिर स्थापित नहीं कर सकते? क्या एक परिवार की परेशानी, पूरे मौहल्ले की परेशानी नहीं हो सकती? क्या एकाकीपन से जूझ रहे किसी घर के बुजुर्गों को मौहल्ले या कॉलोनी के अन्य परिवार अपने साथ के सुख से आश्वस्त नहीं कर सकते? हमने ही तो सबसे पहले दुनिया में यूनिवर्सल ब्रदरहुड याने वसुधैव कुटुम्बकम् की चेतना जगाई थी। यदि वैयक्तिक परिवार सिकुड़ रहे हैं तो क्यों न हम सारे समाज को अपने परिवार में बदलने का संकल्प साकार करें?
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