मूलत: गर्मी और सर्दी दो ही ऋतुएं हैं। गर्मी की अधिकता से जब पानी बरसने लगता है तो वर्षा ऋतु बन जाती है। पूरे वर्ष भर हम वर्षा जनित फसलों और पानी पर निर्भर करते हैं, अत: इस ऋतु को वर्षा कहा जाता है। सर्दी ही बढ़ते-बढ़ते तुषारापात करती है और अग्नि बनकर फसलों को जला देती है। गर्मी-सर्दी की इस घट-बढ़ से छह ऋतुएं मान ली गई है। जलवायु और मौसम के बारे में पिछले कुछ वर्षों से कई तरह की भविष्यवाणियां की जा रही है। वैज्ञानिकों का कहना है कि भूमण्डल पर गर्मी बहुत बढऩे वाली है। दूसरा पहलू यह सामने आता है कि गर्मी के कारण धु्रव प्रदेशों की बर्फ पिघलने से समुद्र का पानी बढ़ जाएगा, जिससे तटवर्ती भू-प्रदेशों के डूबने का खतरा पैदा हो सकता है। गर्मी बढऩे का मुख्य कारण धरती पर चलने वाले उद्योगों की चिमनियों का धुआं, एयरकंडीशनरों से निकलने वाली विषैली गैसों को और इसी तरह के अन्य पदार्थों की बहुलता को बताया जाता है। ओजोन की परत और ग्रीन हाउस जैसे नए शब्दों का प्रयोग भी इन दिनों काफी होने लगा है। पढ़े-लिखे लोग यह कहते नहीं थकते कि ओजोन की परत में छिद्र हो जाने से सूर्य मण्डल की तीव्र रश्मियां भूमण्डल पर अपना विषैला प्रभाव फैलाती है।
इसके विपरीत तथ्य यह भी सामने है कि भूमण्डल पर सर्दी और बरसात भी बढ़ रही है। मौसम की बात करते समय अब जरा उसके परिवर्तन चक्र पर विचार करें तो उपयोगी साबित होगा। ऋतु चक्र के घटकों का स्वरूप भी जान लें तो ठीक रहेगा। ऋतुओं का निर्माण ऋत पदार्थों से होता है, जैसा कि इसके नाम से ही सिद्ध है। वेद में ऋत पदार्थ उसको कहते हैं जिसका कोई केन्द्र भी न हो और शरीर पिण्ड भी न हो। ‘अहृदयं अशरीरं ऋतम्’। इसके विपरीत ‘सहृदयं सशरीरं सत्यम्’ कहा गया है। जितने भी ठोस पदार्थ जिनमेें पिण्ड भी हो और केन्द्र भी सत्य कहे जाते हैं। केन्द्र और शरीर रहित पदार्थों में वायु, जल,प्रकाश जैसे पदार्थों की गिनती की जा सकती है। ऋतु चक्र इन ऋत पदार्थों से ही बनता है। ‘अग्रि सोमात्मकं जगत्’ सिद्धांत से शीत और उष्ण के तारतम्य (घट-बढ़) से ही ऋतु चक्र चलता है। गर्मी ही अपनी चरम सीमा पर पहुंचकर भाप बनकर पानी बन जाती है। जलवायु परिवर्तन के सम्बन्ध में हमें यह ध्यान में रखना होगा कि ओजोन की परत का विस्तार कहां से कहां तक है और हमारा धुंआ वहां पहुंचते-पहुंचते क्या रूप धारण कर लेगा। यह बात सही है कि राकेट जैसे शस्त्र या यंत्र भूमि के आकर्षण से पार जाकर कहां से कहां पहुंच जाते हैं परन्तु धरती की विषैली गैसें और धुआं स्वयं एक सीमा के बाद समाप्त हो जाता है। प्रत्येक पदार्थ अवस्था भेद से परिवर्तित हो जाता है। यही परिणाम धरती से उठने वाली धुआं और गैस का होता है। हमें यदि प्रतिकार करना है तो मौसम को विचार का विषय न बनाकर विषैले धुएं के मूल पर प्रहार करना होगा।
(14 जून 1995 के अंक में ‘मनुष्य ऋतु चक्र को कितना बदल सकता है’शीर्षक आलेख से) प्रकृति की पूर्ति भी करें प्रकृति के अनुकूल जीवन जीने की पहली शर्त यह है कि हम उसके नियमित क्रम में व्याघात नहीं पहुंचाएं। प्रकृति का नियम है सूर्य पूर्व में ही उदित होगा और पश्चिम में ही अस्त होगा। हमें अपने जीवनयापन के लिए कुछ न कुछ प्रकृति से लेना होगा, परन्तु हम यह ध्यान रखें कि प्रकृति की पूर्ति भी करें और प्रकृति की क्षति के लिए शुद्धिकर्म भी करें। प्रकृति को आघात न पहुंचाने पर इतना जोर है कि कृषि के लिए तीन अंगुल से ज्यादा गहरी जमीन नहीं खोदी जाए। हमारे यहां पशु,पक्षी, नदी, पर्वत, ग्रह-नक्षत्र आदि सब पूजे जाते हैं।
(कुलिश जी के आलेखों पर आधारित पुस्तक ‘दृष्टिकोण’ से)