नींद छिनी, सुकून गया, स्क्रीन में उलझा बचपन
डॉ. ज्योति सिडाना, समाजशास्त्री एवं स्तंभकार


कहा जाता है कि अच्छी हंसी और लंबी नींद अधिकांश बीमारियों का सबसे अच्छा इलाज है। उत्तम स्वास्थ्य के लिए नींद बहुत जरूरी है। परन्तु पिछले कुछ दशकों में बच्चों और किशोरों में नींद की कठिनाइयों में वृद्धि देखी गई है। डिजिटल युग के आने के बाद इंटरनेट ने सोशल मीडिया तक सबकी पहुंच को आसान बना दिया है। इस सोशल मीडिया ने लोगों को भले ही सोशल/सामाजिक बना दिया हो लेकिन इस बात से इंकार नहीं कर सकते कि लोगों में मानसिक और शारीरिक व्याधियों को भी तेजी से विकसित किया है। कहा जा सकता है कि यह एक प्रकार का डिजिटल नशा है, जो बच्चों और किशोरों को भी अपने आगोश में ले चुका है।
ऐसा माना जाता है कि बाल्यावस्था मानव जीवन का एक महत्त्वपूर्ण चरण है, जहां मनुष्य दुनिया के गम, परेशानी, तनाव और संघर्ष से अनजाना होता है। हर दिन आनंद लेता है पंरतु क्या आज के दौर के बच्चों पर यह लागू होता है, संभवत: नहीं। बचपन तो शरारत, चंचलता, मस्ती, जिद और सिबलिंग्स व दोस्तों के साथ रूठने, मनाने और झगडऩे से भरा होता है। मानव के जीवन काल की यह सबसे खूबसूरत अवस्था है, जिसमें न तो किसी जिम्मेदारी का अहसास होता है और न ही कोई चिंता सिर्फ ‘खाओ-पीयो और ऐश करो’ की जीवन शैली होती है। लेकिन आज की पीढ़ी के बच्चों ने अपने बचपन को जिया ही नहीं, इनकी मासूमियत बहुत जल्दी ही परिपक्वता में बदल गई, टेक्नोलॉजी और मीडिया सोसायटी ने उम्र और समय से पहले ही इनका बचपन छीन लिया।
नीति आयोग के स्वास्थ्य विभाग ने हाल में 12 से 18 वर्ष की आयु वर्ग के स्कूली किशोरों की नींद से जुड़ी आदतों और उसके प्रभाव को लेकर एक विस्तृत रिपोर्ट तैयार की। रिपोर्ट में बताया गया है कि हमारे देश के एक-चौथाई स्कूली बच्चे आज पर्याप्त नींद नहीं ले पा रहे हैं, जिससे न केवल उनके मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य को नुकसान पहुंच रहा है बल्कि बच्चों के सोचने-समझने की क्षमता भी प्रभावित होती है।
इसमें कोई दो राय नहीं है कि सूचना क्रांति और उपभोक्ता बाजार ने बच्चों के अपरिपक्व मस्तिष्क पर सूचनाओं का हमला बोल दिया है, जिसके कारण उसे अपनी मानसिक क्षमता को अत्यधिक विस्तार देने की आवश्यकता होती है, ताकि वह उन समस्त सूचनाओं (जो कि आवश्यकता से अधिक हैं और संभवत: गैर-जरूरी भी हैं) को अपने ज्ञान भंडार में रख सकें और स्वयं को जीवन की दौड़ में सफल साबित कर सकें। इस सफलता की संभावना ने बच्चों को उपभोक्ता में बदल दिया है और उनकी स्वाभाविकता भी समाप्त कर दी।
यह भी एक तथ्य है कि पहले जो बीमारियां वृद्धावस्था में होती थीं आज किशोर और युवावस्था में या उससे भी पहले देखी जा सकती हैं जैसे ब्लड प्रेशर, शुगर, अस्थमा, दिल का दौरा इत्यादि। मेडिकल रिसर्च के अनुसार 80 से 90 प्रतिशत बीमारियां अनिद्रा, तनाव, असंतुलित भोजन के कारण होती है। इसलिए हर बच्चे को प्रतिदिन कम से कम 7 से 8 घंटे की नींद अवश्य लेनी चाहिए, ताकि उनमें मानसिक और शारीरिक संतुलन बना रहे। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि पर्याप्त नींद और संतुलित भोजन से ही अधिकांश बीमारियों को ठीक किया जा सकता है।
न्यूरो साइंटिस्ट बी.एस. ग्रीनफील्ड के अनुसार प्रत्यक्ष अनुभव, पर्याप्त नींद, वयस्क पीढ़ी के साथ अंत:क्रिया, खेलने के अवसर एवं सृजनशीलता मस्तिष्क विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले कारक हैं, जिसे आधुनिक प्रौद्योगिकी तीव्र गति से नष्ट कर रही है। आजकल प्रौद्योगिकी के कारण आउटडोर गतिविधियों को इनडोर गतिविधियों ने विस्थापित कर दिया है, जिसका प्रभाव न केवल बच्चों के शारीरिक स्वास्थ्य पर पड़ा है अपितु बच्चों में आक्रामकता, निराशा एवं कुंठा की भावना भी बढ़ती जा रही है। इसके साथ ही बच्चों में सामाजिकता की समाप्ति हो रही है, उनमें व्यक्तिवादिता की प्रवृत्ति बढ़ रही है, वे चुनौतियों का सामना करने के बजाय पलायनवादी बन रहे हैं, जीवन जीने के बजाय उसे समाप्त कर लेना उन्हें ज्यादा सरल लगने लगा है।
प्रौद्योगिकी का प्रयोग केवल उतना ही किया जाए जितना किसी काम में आवश्यक है तो सही है, लेकिन अगर प्रौद्योगिकी पर पूरी तरह से निर्भरता बना ली जाए तो मनुष्य को मशीन बनने से रोकना संभव नहीं होगा। ऐसा देखने में आया है कि प्रौद्योगिकी पर निर्भरता होने के बाद से बच्चे अपनी बौद्धिकता पर संदेह करने लगे हैं, उनमें आत्मविश्वास की कमी होती जा रही है। हर सवाल का जवाब गूगल पर ढूंढते हैं यहां तक कि मनोरंजन करने, टाइम पास करने, रिलेक्स करने के लिए भी सोशल मीडिया या नेटवर्किंग का सहारा लेते हैं। आभासी दुनिया को ही वास्तविक मानने लगे हैं। एक बार जो लॉग इन किया पता ही नहीं, कब दिन गुजर गया और कब रात बीत गई। समूह या दोस्तों के साथ घूमना-मस्ती करना, परिवार के साथ समय बिताना, कॉमिक्स पढना, खुले मैदान में खेलना अब अतीत की बात हो गई है। सूचना क्रांति के बाद शिक्षा प्रणाली में आए बदलावों के कारण स्कूल डायरी का स्थान अब वॉट्सऐप ने ले लिया है। स्कूल प्रोजेक्ट ऑनलाइन प्रेजेंटेशन या लिंक में बदल गए हैं। समस्याएं या मन की बात साझा करने के लिए सोशल मीडिया उपस्थित है, ऐसे में बच्चों में मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य की चुनौतियां आना स्वभाविक है।
जो उम्र बच्चों के दोस्ती करने, सामाजिक मूल्यों को सीखने, शारीरिक व मानसिक विकास करने तथा अपनी क्रिएटिविटी को विकसित करने, दादी-नानी की कहानियों को सुनकर उन चरित्रों में खुद को ढूंढने, बड़े होकर देश के लिए कुछ कर गुजरने, फिल्में देखकर हीरो की तरह विलेन को मारने की कल्पना करने की होती है, उस उम्र में वे प्रौद्योगिकी के गुलाम बनते जा रहे हैं। सृजनशीलता और कल्पनाशीलता के लिए मानसिक रूप से स्वस्थ होना जरूरी है और मानसिक स्वास्थ्य के लिए समय पर सोना-जागना, संतुलित और पोषणयुक्त भोजन खाना, समूह में खेलना, व्यायाम करना भी जरूरी है और हमने तो बचपन में ही बच्चों की कल्पनाशीलता को समाप्त कर दिया।
इस रिपोर्ट में प्रस्तुत आंकड़े बताते हैं कि करीब 22.5 प्रतिशत बच्चे को नींद पूरी नहीं मिलती। 60 प्रतिशत बच्चों में अवसाद (डिप्रेशन) के लक्षण पाए गए, जबकि 65.7 प्रतिशत बच्चों में संज्ञानात्मक कमजोरी यानी सोचने और समझने की क्षमताओं में गिरावट देखी गई। आंकड़ों से यह स्पष्ट है कि नींद की कमी केवल थकान या आलस्य की वजह नहीं है, बल्कि बच्चों में गंभीर मानसिक और बौद्धिक समस्याएं भी उत्पन्न हो सकती हैं। परिवार, समाज, शिक्षण संस्थानों और प्रशासन सभी के लिए यह सोचने का विषय है कि क्यों आज के बच्चे किसी भी समस्या के समाधान के लिए प्रौद्योगिकी या गूगल के पास जाने के लिए बाध्य या प्रेरित हो रहे हैं? क्यों उन्हें बचपन से ही केवल कॅरियर पर फोकस करने की सलाह दी जाने लगी है। नींद की कमी का असर बच्चों की एकाग्रता, भावनात्मक संतुलन और पढ़ाई के प्रदर्शन पर भी पड़ता है। इसके लिए जरूरी है कि बच्चों को यह सिखाया जाए कि टेक्नोलॉजी का प्रयोग मनोरंजन के साधन के रूप में नहीं करना चाहिए क्योंकि ऐसा करने से घंटों सोशल मीडिया पर समय बिता देते हैं। बल्कि केवल सूचना के एक उपकरण के रूप में ही इसका उपयोग करना चाहिए। मनोरंजन के तो अनेक पारम्परिक साधन हैं, जिनका उपयोग किया जा सकता है। अच्छी नींद लेने की आदत विकसित करनी चाहिए जिसके लिए एक नियमित समय पर सोने का रुटीन तय करना चाहिए। जब तक आवश्यक न हो देर रात तक जागने की उपेक्षा करनी चाहिए। फास्टफूड के स्थान पर पौष्टिक व संतुलित भोजन, योगा, मेडिटेशन, व्यायाम और सैर करने की नियमित आदत अपने दैनिक जीवन में शामिल करनी चाहिए।
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