scriptआत्म-संवाद : ज्यादा खुश और कम जरूरतों में रहना क्या अमीर होना नहीं है? | Patrika News
ओपिनियन

आत्म-संवाद : ज्यादा खुश और कम जरूरतों में रहना क्या अमीर होना नहीं है?

— डॉ. दमन आहूजा
(स्वतंत्र लेखक एवं स्तंभकार)

जयपुरMay 05, 2025 / 05:41 pm

विकास माथुर

हमारा पूरा फोकस जिंदगीभर इस बात पर रहता है कि हम ज्यादा पैसे कमा लें, ज्यादा सुविधाएं जोड़ लें, ज्यादा बाहर से सुंदर दिखें। हमें इस बात की बहुत चिंता होती है, कि आज फलां उत्सव में जाना है। आज फलां का बर्थडे है, आज उसकी मैरिज एनिवर्सरी है, आज मैं उसमें कैसे ड्रेसअप होकर जाऊं, आज सबसे अलग कैसे दिखूं, क्या पिछली पार्टी में, जो ड्रेस पहनी थी वह सबने देख ली थी आज कौनसी नई ड्रेस पहनूं! लेकिन क्या कभी हमने ये सोचा है कि कैसे मैं भीतर से और अमीर हो जाऊं!
भीतर की अमीरी का क्या मतलब है? क्या आज की भागती दौड़ती जिंदगी में शांत रहना भी एक धन नहीं है? ज्यादा शांत, ज्यादा स्वयंदेनशील, ज्यादा खुश, ज्यादा सादा, कम जरूरतों में संतोषमय रहना भी अमीर होना नहीं है? जिन चीजों पर हम सोचते हैं वैसे हम हो जाते हैं, जिन पर नहीं सोचते वैसा नहीं होते। इसलिए जब जरा-सी विपरीत परिस्थिति आती है हम अपना धैर्य खो देते हैं, चिड़चिड़े हो जाते हैं, बात-बात पर अपना आपा खो देते हैं और बहुत आसानी से अपनी स्वयंस्थिति और शांतस्थिति को खो देते हैं। कभी-कभी तो इतने उग्र हो जाते हैं कि अपना और अपनों का नुकसान कर बैठते हैं, कभी इतना गंभीर कदम उठा ले लेते हैं कि अपनी जान ले लेते हैं या फिर बिल्कुल चुप होकर दिनों, महीनों और सालों तक गहरे अवसाद में चले जाते हैं।
इन सबका सीधा-सा कारण है कि आम दिनों में हमारी रूटीन में भीतर की अमीरी को कभी कोई अहमियत दी ही नहीं गई है। हमारी खुद की अथवा हमारे बच्चों की ट्रेनिंग में भीतर की अमीरी सिखाई ही नहीं गई है। न ही हमारे स्कूल कॉलेजों में इसकी कोई ट्रेनिंग दी गई है। अकेले बैठकर प्रकृतिमय होना, पक्षियों की आवाजें सुनना, उगते और ढलते सूरज को देखना, पहाड़ या नदी किनारे जाना या जैसा भी हमारा परिवेश है उसको अपने भीतर उतारना, उसको और उन्नत व स्वस्थ करना या फिर अपने आप में स्थित होना? हमारे समाज में संयुक्त परिवारों के लोग बाहर से चाहे उतने धनी नहीं थे, लेकिन भीतर से बहुत अमीर हुआ करते थे, उनकी व्यावसायिक ट्रेनिंग कम थी लेकिन संस्कारगत ट्रेनिंग गजब की थी, उनमें अदम्य सहनशक्ति थी, धैर्य था, अपने को झुकाकर अपने बड़ों का सम्मान करने का भाव था। खुद अपनी जरूरतों को रोककर अपने परिवार फिर चाहे वह स्वयं का हो अथवा भाई बहनों का या गांव का या यात्रियों का या मेहमानों का परिवार हो उनकी जरूरतों को पूरा करने की प्राथमिकता थी उनमें सब्र था, परहेज था, विश्वास था, आस्था थी, पीड़ा सहने की तितिक्षा थी, जिससे वे कम साधन होते हुए भी खुश ज्यादा थे यानी ज्यादा अमीर थे।
आज दस मिनटों में चीजों को ग्राहक तक पहुंचाने की जल्दी ने कितनी जिंदगियां बर्बाद कर दी हैं, इसकी किसी को परवाह नहीं है। जो लोग दस मिनट में सामान मंगवाना चाहते हैं वे एक पूरे तंत्र के भीतर निपुणता के नाम पर न मालूम कितनी जिंदगियां में वेदना का इंजेक्शन लगा देते हैं। जरा सोचिए! हाय हाय की मारी हुई जिंदगी में, न खाने के लिए समय है, न बनाने के लिए, न नहाने के लिए समय है, न भीतर से चेतन होने का, सब बाज़ार हो गया है, सब विज्ञापन हो गया है। ताजा पकाया हुआ भोजन न सिर्फ हमें पौष्टिकता प्रदान करता था, बल्कि हमारे मानसिक स्वास्थ्य, मधुर संबंध, समन्वय और एकजुटता का भी पर्याय था। खुशी ढूंढने का पूरा एक मार्केट तैयार हो गया है, खुशी ढूंढने का पूरा एक कोर्स/पढ़ाई करवाई जा रही है।
इसमें देश-विदेश के महंगे इंस्टीट्यूट्स के अंदर मोटी फीस देकर पढ़ाई करवाई जा रही है। पढ़ाने वालों के अपने घरों में रिश्ते खत्म हो चुके हैं और वे खुद अपनी खुशी को ड्रिंक्स, स्मोकिंग एवं अन्य अस्वाभाविक चीजों में खोज रहे हैं। क्या किया जाए? 140 करोड़ की हमारी आबादी है, और यदि वसुधैव कुटुंबकम् की उक्ति पर चला जाए तो पूरा विश्व ही हमारा परिवार है। पैसे से तो टैरिफ और रेसिप्रोकल टैरिफ लगाई जा सकती है, भीतर की अमीरी तो नहीं पाई जा सकती। विश्व की तीसरी अर्थव्यवस्था बनने की होड़ में अपने प्राकृतिक संसाधनों को बहुत जल्द बर्बाद किया जा सकता है। इस सब का इलाज बिल्कुल मुफ्त है! हैरान हो गए न! माइंडफुलनेस! यानी हर पल की सजगता! जो भी कर्म करो, सोचो! क्या इससे प्रकृति का, मानव जाति, पशु जाति, पर्यावरण का नुकसान होगा!
हर रोज केवल पांच से दस मिनट सेल्फ रिफ्लेक्शन किया जाए! और इसे जरूरी पैरवी के रूप में प्रोत्साहित किया जाए! हर क्षेत्र में किया जाए! हर स्कूल, हर कॉलेज, हर काम मजदूरी से लेकर वाइट कालर जॉब तक के हर मानव को सिर्फ उसके प्रति सजग किया जाए। कॉरपोरेट संसार में दिन में दो बार घंटी बजाकर जो जहां है वहीं पर सिर्फ पांच मिनट के लिए स्वयं के प्रति सजग किया जाए! हमारे राजनेता अपने भीतर की सजगता की बात करें, आग्रह करें। रेलवे स्टेशन, हवाई जहाज और बस स्टैंड पर पांच मिनट का सेल्फ रिफ्लेक्शन का विज्ञापन दिया जाए। फोन की घंटियों में कॉलर ट्यून सेट की जाए कि क्या आज आप ने अपने आप को समय दिया? यूपीआइ के प्रत्येक ट्रांजैक्शन के बाद सुनाई पड़े, स्वयं से मुलाकात हुई? विकसित भारत अवश्य होगा! लेकिन भारत सिर्फ बाहर से विकसित न हो, बल्कि हमेशा की तरह भीतर से भी विकसित होकर पूरे संसार के लिए एक मिसाल बन जाए। खुश होने के पैमानों पर भी खरा उतरे, तभी हमारे साथ-साथ पूरा विश्व विकसित होगा!

Hindi News / Opinion / आत्म-संवाद : ज्यादा खुश और कम जरूरतों में रहना क्या अमीर होना नहीं है?

ट्रेंडिंग वीडियो