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हास्य-व्यंग्य ने हिंदी पत्रकारिता को बनाया प्रभावशाली

िंदी पत्रकारिता और साहित्य का चोली-दामन का साथ रहा है। हिंदी पत्रकारिता की शुरुआत 1826 में पंडित जुगल किशोर शुक्ल द्वारा उदंत मार्तण्ड से हुई। प्रारंभिक दशकों के बाद, हिंदी पत्रकारिता ने हास्य-व्यंग्य को अपनाकर सामाजिक और राजनीतिक जागरूकता को बढ़ाया। हिंदी पत्रकारों ने व्यंग्य के माध्यम से समाज और सत्ता की विसंगतियों पर प्रहार किया, जिसने हिंदी पत्रकारिता को रचनात्मक और प्रभावशाली बनाया।

जयपुरMay 29, 2025 / 06:26 pm

Rakhi Hajela

Hindi Journalism

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अतुल चतुर्वेदी, कवि और व्यंग्यकार

हिंदी पत्रकारिता और साहित्य का चोली-दामन का साथ रहा है। हिंदी पत्रकारिता की शुरुआत 1826 में पंडित जुगल किशोर शुक्ल द्वारा उदंत मार्तण्ड से हुई। प्रारंभिक दशकों के बाद, हिंदी पत्रकारिता ने हास्य-व्यंग्य को अपनाकर सामाजिक और राजनीतिक जागरूकता को बढ़ाया। हिंदी पत्रकारों ने व्यंग्य के माध्यम से समाज और सत्ता की विसंगतियों पर प्रहार किया, जिसने हिंदी पत्रकारिता को रचनात्मक और प्रभावशाली बनाया।

सन् 1845 में बनारस अखबार और 1868 में भारतेंदु हरिश्चंद्र द्वारा ‘कविवचन सुधा’ ने हिंदी पत्रकारिता को साहित्यिक आधार दिया। ‘कविवचन सुधा’ ने सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक लेखों के साथ जन-जागरण में योगदान दिया। भारतेंदु ने ‘हरिश्चंद्र’ मैगजीन और ‘बाला बोधिनी’ में भी हास्य-व्यंग्य को स्थान दिया। बालकृष्ण भट्ट ने भारत मित्र में ‘शिव शम्भू के चित्र स्तंभ के माध्यम से अंग्रेजी सरकार और सामाजिक मुद्दों पर तीखा व्यंग्य किया, जो हिंदी पत्रकारिता मे एक नए मोड़ का आरंभ भी था।

एक जगह अपने व्यंग्य में बाल मुकुंद गुप्त लिखते हैं- माई लॉर्ड, जब से आप भारतवर्ष पधारे हैं, बुलबुलों का ही स्वप्र देखा है या सचमुच कोई करने योग्य काम भी किया है ? खाली अपना ख्याल ही पूरा किया है या यहां की प्रजा के लिए भी कुछ कर्तव्य पालन किया है। आपने भारत में केवल स्वप्न देखा या प्रजा के लिए कुछ किया? यह व्यंग्य हिंदी पत्रकारिता में सत्ता को चुनौती देने का प्रतीक था। ‘मतवाला’ साप्ताहिक ने निराला और अकबर इलाहाबादी जैसे रचनाकारों के व्यंग्य को स्थान दिया, जैसे ‘जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो’ जो हिंदी पत्रकारिता की जुगलबंदी को दर्शाता है।
आजादी के बाद, हिंदी पत्रकारिता में व्यंग्य ने जनता के आक्रोश को स्वर दिया।यह आक्रोश व्यंग्य और विसंगति के उद्घाटन और विरोधाभास पर प्रहार के रूप में प्रकट हुआ। 1960 के दशक में हरिशंकर परसाई ने अपने स्तंभ के जरिए कई सामाजिक मुद्दों, छात्रों और श्रमिकों के आंदोलन पर कलम चलाई और राजनीति में व्याप्त भ्रष्टाचार, मूल्यहीनता को भी निशाना बनाया। चाहे वे सत्ता पक्ष के प्रधानमंत्री हों या राज्यों में विपक्ष की सरकारें उन्हों अपने व्यंग्य में किसी को नहीं बख्शा। विकलांग श्रद्धा का दौर , पिटने पिटने में फर्क और दुर्घटना रस स्वयं के पिटने और दुर्घटनाग्रस्त होने पर लिखे गए आत्म व्यंग्य हैं। इनके बाद रवींद्रनाथ त्यागी, श्रीलाल शुक्ल और ज्ञान चतुर्वेदी जैसे हिंदी पत्रकारों ने भी व्यंग्य स्तंभों को लोकप्रिय बनाया।
एक समय था जब समाचार पत्र व्यंग्य स्तंभ और कार्टून से सुसज्जित रहते थे। शंकर कार्टूनिस्ट स्वयं नेहरू जी से दस्तखत कवाते थे और कोई राजनेता इसका बुरा नहीं मानता था। कार्टूनिस्ट काक, आरके लक्ष्मण, सुधीर तैलंग ने अपने कार्टूनों के माध्यम से व्यवस्था की तीखी आलोचना की और पत्रकारिता को और भी रचनात्मक और बहुरंगी बनाया। उसमें हास्य विनोद और जीवन की सच्चाई का सामना करने के रंग भी भरे।

हालांकि, कुणाल कामरा का प्रसंग इस संदर्भ में उल्लेखनीय है व्यंग्य और कटाक्ष को बर्दाश्त करने का माद्दा समाज में उत्तरोत्तर कम हुआ है । हमारी संकीर्णता बढ़ी है। सर्वोच्च न्यायालय को आखिरकार दखल देना पड़ा और कला और साहित्य की अभिव्यक्ति को अभयदान की वकालत करनी पड़ी । किसी भी स्वस्थ लोकतंत्र के लिए यह स्थिति शुभ नहीं है । हिंदी पत्रकारिता को हास्य-व्यंग्य की इस परंपरा को बनाए रखते हुए जनता को सजग और सशक्त करना होगा।

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