scriptशरीर ही ब्रह्माण्ड – स्त्री है लक्ष्मी-सरस्वती | Patrika Editor In Chief Gulab Kothari Special Article On 31st May 2025 Sharir Hi Brahmand Woman is Lakshmi-Saraswati | Patrika News
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शरीर ही ब्रह्माण्ड – स्त्री है लक्ष्मी-सरस्वती

सरस्वती ही लक्ष्मी का आलम्बन है। सरस्वती परा है, चेतना है। लक्ष्मी जड़ है, अपरा है। पुरुष में अग्नि प्रकट है- बुद्धि प्रधान है। स्त्री सोम है- पदार्थ (वाक्) है। गर्भाधान काल में जहां शुक्र-शोणित समान भाव में रहते हैं, वहां सन्तान नपुंसक होती है।

जयपुरMay 31, 2025 / 09:25 am

Gulab Kothari

-गुलाब कोठारी

स्त्री लक्ष्मी है, सरस्वती है, कमलासना है। परमेष्ठी लोक इनका उद्भव है। स्वयंभू पिता, परमेष्ठी माता है। अत्रि भ्राता है। सरस्वती नाद है- आकाश का जनक है जो प्रथम महाभूत है। लक्ष्मी अर्थ है- पृथ्वी। पृथ्वी पांचवा महाभूत है। इसमें शेष चार महाभूत समाहित हैं। सरस्वती ही लक्ष्मी का आलम्बन है। सरस्वती परा है, चेतना है। लक्ष्मी जड़ है, अपरा है। पुरुष में अग्नि प्रकट है- बुद्धि प्रधान है। स्त्री सोम है- पदार्थ (वाक्) है। गर्भाधान काल में जहां शुक्र-शोणित समान भाव में रहते हैं, वहां सन्तान नपुंसक होती है। शुक्र की बहुलता से पुरुष, शोणित की बहुलता से स्त्री सन्तान उत्पन्न होती है। नपुंसक की सत्ता नहीं होती। ब्रह्म विवर्त में सहायक नहीं हो सकता।
एक अन्य परिस्थिति में नि:सन्तान स्त्री होती है। मूल कारण तो प्रारब्ध ही होता है। निमित्त कई हो सकते हैं। संस्कारवान स्त्री के लिए यह एक बड़ा अभाव है। इसी सपने की पूर्ति के लिए तो विवाह किया था। जीवन का यह असह्य अभाव है। सात्विक भाव में बच्चों का सहारा बन जाना, राजसिक रूप में बच्चा गोद लेकर कृत्रिम सुख का प्रयास करना भी इस अभाव की पूर्ति का मार्ग हो सकता है। तामसिक धरातल पर विकल्प की सहायता से सन्तान उत्पन्न करके मातृ-सुख के अभाव की पूर्ति कर लेना भी एक मार्ग है। स्वच्छन्दता इसका आसुरी स्वरूप है।
आज की समस्या का मूल अज्ञान है। शिक्षा में जानकारियां हैं, प्रज्ञा नहीं है, जीवन दृष्टि नहीं है। शिक्षा भौतिकवाद, उपभोक्तावाद की प्रेरक है, मार्गदर्शक है। इसमें शरीर भी एक उत्पाद ही है और भोग्य सामग्री बना हुआ ही जीता है। जीता भी कहां है! उम्र ही बढ़ती है बस, आत्मा के क्रिया-कलाप तो लगभग शून्य ही हैं। वहां प्रकृतिजन्य ऋणानुबन्ध की गतिविधियां तो रहती हैं, किन्तु इनके स्वरूप की जागरुकता नहीं रहती। जहां पुरुष का सौम्य अंश अल्प है, वहां जीवन एकपक्षीय और असंतुलित रह जाता है। स्त्री का पौरुष अधिक बढ़ जाए तो उसका सोम अंश भी अल्प हो जाता है। पुरुष अति पौरुषीय तथा स्त्री अल्प स्त्रैण रह जाती है। विष्णु यदि अति-पौरुषेय तथा लक्ष्मी यदि अल्प सौम्या हो जाए तो सृष्टि का स्वरूप कैसा होगा!

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पुरुष प्रजापति अपने अर्द्धभाग से पुरुष, अर्द्धभाग से प्रकृति बना हुआ है। पुरुष प्रजापति अव्ययात्मक मन, अक्षरात्मक प्राण, क्षरात्मक वाक् रूप त्रिपुरुष है। अत: प्रकृति रूपा शक्ति भी तीन रूप ही बनती है- पर, परावर तथा अवर शक्ति। पुरुष-प्रकृति रूप अमृत-मृत्युरूप प्रजापति का अव्यय रूप मनोभाग सूक्ष्मतम है, प्राणभाग सूक्ष्मतर है, वाक् भाग सूक्ष्म है। इन तीनों रूपों से क्रमश: विश्व का अधिष्ठान-निमित्त-उपादान बनता है। मनोभाग से वही विश्व आलम्बन, प्राण भाग से निमित्त, वाक् भाग से वही उपादान बन रहा है। ‘उस पर’ (अव्यय), ‘उससे’ (अक्षर), ‘वही’ (क्षर) विश्वरूप है। क्षर कला ही आकाश है। बल रूप चिति के तारतम्य से पांच महाभूतों में परिणत होता है। इनके छान्दोमय सुसूक्ष्म अण्डात्मक पुर ही क्रमश: स्वयंभू-परमेष्ठी-सूर्य-चन्द्रमा-पृथ्वी हैं।
सर्वप्रथम अव्यक्ता वाक् ही सर्वत्र व्याप्त थी। इसी से प्रजा कामना की पूर्ति के लिए अप् तत्त्व उत्पन्न हुआ।

सोऽभिध्याय शरीरात् स्वात् सिसृक्षुर्विविधा: प्रजा: ।

अप एव ससर्जादौ तासु वीर्यमवासृजत् ॥ (मनु १/8)
यही सुसूक्ष्म अप्तत्त्व (जल) रूप आपोमय समुद्र सरस्वान् कहलाया। यही वाङ्मयी-आंभृणी-शक्ति-भूतप्रसवा लक्ष्मी कहलाई। सभी स्थावर-जंगम इसी वाग्देवी (आपोमयी) से उत्पन्न हुए। लक्ष्मी लक्षणा-सरस्वती गर्भिता, अव्यक्त काली मूला यही वाग्देवी सर्वत्र व्याप्त है। ज्ञानशक्ति महाकाली है। यह मुक्ति की अधिष्ठात्री है। यह अव्ययात्मक मनोमय अक्षर से जुड़ी है। क्रिया शक्ति महासरस्वती है। भुक्ति-मुक्ति की अधिष्ठात्री है। प्राणमय मध्यस्थ अक्षर से इसका सम्बन्ध है। अर्थशक्ति ही महालक्ष्मी है। क्षररूप, वाङ्मय अक्षर से सम्बन्ध है। मन काली पर, प्राण सरस्वती पर, वाक् लक्ष्मी पर प्रतिष्ठित है।
स्वयंभू-परमेष्ठी-सूर्य तीनों की समष्टि अमृत विश्व है। इसे मानव के अमृत-विज्ञान रूपी ‘आत्मभाव’ से समन्वित कहा है। इसका स्वयंभू पर्व ज्ञानशक्ति महाकाली से, परमेष्ठी की क्रियाशक्ति महासरस्वती से, सूर्य की अर्थशक्ति महालक्ष्मी से समन्वित है। तीनों की समष्टि के रूप में अमृत विश्व की तीनों शक्तियों से युक्त अधिष्ठात्री ‘श्री’ कहलाई। इसी के द्वारा आत्मा की अनुगत विद्या बुद्धि (धर्म-ज्ञान-वैराग्य-ऐश्वर्य) सम्पत्तियां व्यवस्थित हुईं।
इन्हीं तीनों शक्तियों का मर्त्य विश्व में भी मर्त्य पर्व है। मर्त्य सूर्य (सूर्य का ऊपरी अर्द्धांश अमृत कहा जाता है, नीचे वाला अर्द्धांश मर्त्य है), चन्द्रमा, पृथ्वी तीनों मर्त्य विश्व हैं। इनमें मानव की लोक बुद्धि-कारण शरीर, प्रज्ञानमन-सूक्ष्म शरीर, भौतिक शरीर-स्थूल तीनों की व्यवस्थापिका, प्रवर्तिका मानी गई है। सूर्य-चन्द्र-पृथ्वी का मर्त्यविश्व पर्व तीनों की ज्ञान, क्रिया, अर्थ शक्ति से समन्वित है, जिसे ‘लक्ष्मी’ कहा है। इसके द्वारा मन, बुद्धि, शरीर की लोकसमृद्धि व्यवस्थित हुई। त्रिरूपा लक्ष्मी की प्रतिष्ठा आत्म भाव की त्रिरूपा ‘श्री’ ही है। तभी लक्ष्मी का प्रभाव होता है। इसके अभाव में मानव का तम-मूलक आसुरी भाव प्रधान हो जाता है। अमृत-आत्मा के आधार के अभाव में बुद्धि ‘अविद्याबुद्धि’ (अविद्या-अस्मिता-आसक्ति-अभिनिवेश) बन जाती है।
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पंचपर्वा विश्व अग्नि (अन्नाद) सोम (आद्य) युक्त है। ब्रह्माग्नि का संबंध ब्रह्म नि:श्वसित स्वयंभू वेद से, सावित्राग्नि का गायत्री सौर वेद से, गायत्राग्नि का यज्ञमात्रिक पार्थिव वेद से संबंध है। ब्रह्मणस्पति सोम अंभ:-पवमान-पावक से नित्य जुड़ा, पवित्र रूप दिव्यसोम परमेष्ठी का सोम है। दूसरा वृत्रसोम ही भास्वर सोम है। वृत्रासुर का इन्द्र द्वारा वध किया गया। उसके सौम्य भाग से चन्द्रमा को रूप प्रदान किया। प्रथमभूत आसुर भाव से पार्थिव प्रजा की जठराग्नि से समन्वित कर दिया।
स्वयंभू का अग्नि सत्याग्नि है। सौर गायत्री मात्रिक अग्नि देवाग्नि तथा पार्थिव अग्नि भूताग्नि है। सौराग्नि का प्रवर्ग्य भाग (उच्छिष्ट अथवा छिटका हुआ) कृष्ण रूप में अग्नि ‘भ्रातर:’ कहलाता है। स्वयंभू का सत्याग्नि ‘पलितवाम’ कहलाता है। एक ही अग्नि सत्य-देव-भूत रूप तीन भावों में बदलता है। तीन अग्नि-सत्याग्नि, देवाग्नि तथा भूताग्नि और दो सोम- दिव्य सोम तथा भास्वर सोम (ब्रह्मणस्पति एवं वृत्र) की समष्टि का नाम ही पंचपर्वा विश्व है।
क्रमश: gulabkothari@epatrika.com

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