शिक्षा का जो लक्ष्य जीवन को मानवीय मूल्यों के साथ प्राकृतिक जीवन जीना सिखाना है, वही आज अप्राकृतिक, अवैध सम्बन्धों और भोगी मानसिकता में धकेलने का हो गया। व्यक्ति आत्मा को भूलकर शरीर मात्र (आवरण) के लिए, पशुवत ही जीएगा? आईवीएफ, गर्भ निरोधक गोलियां, कैंसर, अंग भंग कराने को स्त्रियां बाध्य होंगी। क्या यही नारी का सम्मान माना जाएगा? भूल गए हम-‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:-?’ अथवा शिक्षा ने भुला दिया। शिक्षा ने एक ओर मानव को संसाधन (निर्जीव) बना दिया, उत्पादन का उपादान, वहीं दूसरी ओर स्त्री को भोग्या और मुद्रा की सीमा तक ले गए। रिश्वत में मांगने लगे। धिक्कार का भी असर नहीं पड़ता।
याद करें-कांग्रेस शासन में शिक्षा मंत्री कपिल सिब्बल एक प्रस्ताव लाए थे-लड़कियों की शादी की उम्र को 18 वर्ष रखते हुए, उन्हें 16 साल की उम्र में शारीरिक संबंध बनाने का अधिकार दे दिया जाए। क्या अर्थ होता है इसका? अब दिल्ली विश्वविद्यालय का जो नया प्रस्ताव आया है-मनोविज्ञान विभाग का-वह इससे भी एक कदम आगे की बात करता है।
पाठॺक्रम चार चरणों में प्रस्तावित है। पहला चरण है- दोस्ती और घनिष्ठ सम्बन्धों के पीछे के मनोवैज्ञानिक कारण। दूसरा-प्रेम और कामुकता के सिद्धान्त, तीसरा-ईर्ष्या, भावनात्मक हेर-फेर और हिंसा, चौथा-संतोषजनक और लम्बे चलने वाले रिश्तों का पोषण। यह होगा भावी पीढ़ी का ‘अभ्युदय और नि:श्रेयस’ भरा जीवन। आश्चर्य इस बात का है कि आरंभिक परिस्थितियों को बदलने पर विचार नहीं है। नए विज्ञान का सूत्र बन गया है-पहले बीमार करो, फिर इलाज की सोचो।
यह सम्पूर्ण शिक्षा प्रणाली उन देशों की है जहां अध्यात्म और अधिभूत को ही जीवन का आधार माना है। व्यक्ति को स्त्री या पुरुष रूप में एकल इकाई ही माना है। अधिदैव के अभाव में सूक्ष्म जीवन का ज्ञान व्यक्ति को होता ही नहीं।
स्त्री का मातृत्व लौटाना है
हम तो अर्द्धनारीश्वर के सिद्धान्त पर जीने वाले हैं। नई शिक्षा में लड़कों का पूर्ण रूप है-उसका आधा स्त्रैण भाग शून्य रहता है। उसका विकास भी अपूर्ण ही रहेगा-कितना भी पढ़ ले। यही विडम्बना स्त्री (लड़की) के सामने है। वह भी स्वयं को लड़के की भांति ही बड़ा करती है। नारी सुलभ गुणों की कोई शिक्षा नहीं है। वह भी भीतर से पूर्ण रूपेण पुरुष ही है। बौद्धिक-उष्ण-दोनों सूर्य के भाव हैं। शिक्षित समाज में शरीर तो लड़के-लड़की के भिन्न हैं, किन्तु प्राकृतिक स्वरूप में दोनों अपूर्ण ही रहते हैं। व्यवसाय में तो दोनों निपुण होते हैं, किन्तु संवेदना के मानवीय धरातल पर अनभिज्ञ रहते हैं। इसमें शिक्षा सहायक नहीं हो सकती। शिक्षा में लड़के के आधे स्त्री भाग का ज्ञान नहीं है, लड़की के पौरुष भाव का ज्ञान नहीं है। दोनों ही आत्मभाव से शून्य होकर शरीर के लिए जीने लगते हैं। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष में से काम-अर्थ ही रह गए। धर्म के अभाव में आहार-निद्रा-भय-मैथुन ही रह गया जीने का अर्थ। दोनों में न बन्धन है, न कोई मर्यादा। सम्बन्धों को लेकर तब रोना किस बात का?
यह भी पढ़ें शिक्षा को व्यापार बना दिया। लड़के-लड़की खरीद-फरोख्त-समझौते का सामान हो गए। एक-दूसरे के भोक्ता हो गए। देव जीवन से बाहर हो गए। शिक्षा का वर्तमान धरातल व्यक्ति को मानवता से-आत्मा से दूर कर रहा है। इसमें स्त्री की भूमिका को गौण कर दिया गया। होना तो यह चाहिए कि स्त्री की दिव्यता को बनाए रखने के लिए स्त्री-शिक्षा के अलग पाठॺक्रम हों। वही गर्भ में शिशु की स्थूल देह और सूक्ष्म आत्मा का निर्माण और संस्कार देने का काम करती है, पुरुष कुछ नहीं कर सकता-सूक्ष्म धरातल पर। सूक्ष्म धरातल देवों का, प्राणों का, स्त्री का, जीवात्मा का विशिष्ट धरातल है, जहां इंसान तैयार किए जाते हैं। शिक्षा मूर्ख बना रही है स्त्री को। उसकी दिव्यता छीन रही है। वही पुरुष-स्त्री दोनों का निर्माण कर सकती है। समाज और देश का गौरव स्त्री के हाथ में है, पुरुष के आसपास भी नहीं। हमें फिर से स्त्री के मातृत्व को लौटाना है-उसे पूजनीय बनाना है, भोग्या नहीं।