व्यक्ति के जीवन में शक्ति के अनेक रूप हैं। शरीर की शक्ति, बुद्धि की शक्ति, मन की शक्ति, प्राणों की शक्ति, पोषण और संहार की शक्ति, आवेग और आवेश की शक्ति, सहयोग की शक्ति आदि। भारतीय दर्शन शक्ति शब्द से अटा पड़ा है। शक्ति की सारी परिभाषाएं व्यक्ति के जीवन में लागू होती हैं चाहे आध्यात्मिक शक्ति हो, आधिभौतिक या फिर आधिदैविक शक्ति। माया ही शक्ति के भिन्न-भिन्न रूपों में कार्य करती दिखाई पड़ती है।
आगम शास्त्रों के अनुसार ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदि भी शक्ति के बिना कुछ नहीं कर सकते। यही है शक्ति की महिमा। ब्रह्म स्वयं में निष्क्रिय है। उसकी माया शक्ति ही उसका विस्तार करती है, उसके भिन्न-भिन्न स्वरूप बनाती है। हमारे देश में शक्ति की उपासना करने वाले समुदाय को ‘शाक्त’ कहा जाता है। जैसे शिव के उपासक शैव कहे जाते हैं। शक्ति स्वरूपिणी माया ही भूत मात्र में व्याप्त होती हुई संसार के चक्र को चला रही है।
जिस प्रकार शक्ति के बाहरी रूप दिखाई पड़ते हैं, वैसे ही शक्ति के भीतरी स्वरूप भी हैं। हमारे स्थूल-सूक्ष्म और कारण तीन प्रकार के शरीर हैं। हर शरीर के अपने अवयव हैं, अपने प्राण हैं। हर व्यक्ति के केन्द्र में षोडशी पुरुष अवस्थित है। हम आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक धरातलों के संयोग से उत्पन्न होते हैं। इनकी सबकी शक्तियां भिन्न-भिन्न अनुपात में हमारे भीतर कार्य करती हैं।
कहा जाता है कि पुरुष की शक्ति स्त्री होती है। क्या अर्थ है इसका? पुरुष आग्नेय है, स्त्री सौम्या है। यहां भी स्त्री के दो रूप होते हैं। शरीर रूप में स्त्री पुरुष की बाह्य शक्ति है। पुरुष भीतर में स्वयं सोम (अर्द्धनारीश्वर) है, जो उसकी प्रकृतिदत्त शक्ति है। ये पुरुष के प्रारब्ध का अंग है। भीतर और बाहर वाली शक्तियों में एक विशेष प्रकार का तारतम्य रहता है। दोनों एक-दूसरे से स्वतंत्र भी हैं। स्त्री का अपरा स्वरूप स्थूल देह की शक्ति बनता है तथा परा भाग सूक्ष्म देह की शक्ति बनता है।
इसी प्रकार स्त्री स्वयं भी जीवात्मा है, सौम्या है। उसकी शक्ति अग्नि में प्रतिष्ठित है। स्त्रैण देह की शक्ति पुरुष देह है। स्त्री की परा शक्ति का आधार पुरुष का जीवात्मा ही हो सकता है। किन्तु सूक्ष्म स्तर पर साधारण पुरुष जीता ही नहीं। अत: वह स्त्री को समझ भी नहीं सकता। अपनी इस दिव्यता के कारण स्त्री का आत्मीयता का संवाद भी परोक्ष भाषा में ही होता है। परोक्ष ही देवों को प्रिय है। एक ही देह में अर्थब्रह्म और शब्दब्रह्म को धारण किए रहती है। वही लक्ष्मी है, वह सरस्वती भी है। लक्ष्मी शरीर की भाषा है, सरस्वती आत्मा की।
शक्ति शब्द भी अनेक अर्थ वाला है। बल, प्रभावशक्ति, शब्दशक्ति, मंत्रशक्ति, देवशक्ति, राजशक्ति, अस्त्र का नाम, रचनाशक्ति, यथाशक्ति, ऊर्जा, प्राणशक्ति आदि। यही शक्ति स्वरूप जीवन को चलाते हैं। इनमें से कुछ शक्तियां प्रकृति से आती हैं। सभी शक्तियां व्यक्ति के भीतर ही रहती हैं अथवा इनके विकास के कारण भीतर रहते हैं।
पुरुष भीतर स्त्री है—सोम है। यह सोम ही पुरुष की शक्ति है। पुरुष के आत्मा का विकास इसी से होता है। सोम ही अग्नि को प्रज्वलित रखता है। सोम की समाप्ति पर अग्नि भी बुझा ही समझो। पुरुष शरीर में इस सोम का पहला विकास माता के गर्भ में होता है। अन्न से मन बनता है। अन्न भी सोम है, मन भी सोम है। सात्विक अन्न विचारों को सात्विक बना देता है, तामसिक अन्न विचारों को आसुरी रूप देता है। मां की लोरियां-मीठे संवाद-गीत सभी मधुरता लिए होते हैं। आसपास का वातावरण, मां की चर्या, पूजा-अर्चना आदि सभी इस सौम्यता का पोषण करते हैं। छोटे बच्चों की जिज्ञासाओं में अपना मिठास होता है।
शरीर का पौरुष भाग तो अन्न की चिति है। पंचमहाभूतों की समष्टि है। चिति ही शरीर रचना का आधार है। अन्न वैश्वानर में आहुत होकर रस-रक्त में परिणित होता है। रक्त से नाभि के माध्यम से शिशु शरीर में पहुंचता है। अन्न भी यदि सात्विक है तो शरीर की सौम्यता भी बढ़ जाती है जिसका अर्थ प्रकृति की सौम्यता को प्रभावित करना है। अहंकृति-प्रकृति-आकृति एक साथ ही परिवर्तित होते हैं। प्रकृति का निर्माण चन्द्रमा से होता है। अन्न और मन का पोषण भी चन्द्रमा ही करता है। चन्द्रमा की षोड़श कलाएं पुरुष का निर्माण करती हैं और पिण्डी बीज का निर्माण करती हैं। स्त्री का ऋतुकाल भी चन्द्रमास (२८ दिन) पर ही निर्भर करता है। प्रकृति में एक तारतम्य है जो जीवन का संचालन करता है।
पुरुष बुद्धिप्रधान है—अहंकार का प्रतीक है। बुद्धि भी सूर्य से बनती है। अत: उष्ण है, आक्रामक है, विशकलन करती है- तोड़ती है। चन्द्रमा के कारण स्त्री मनप्रधान है। सोम में संकोच रहता है। मन जोड़ता है, शीतल-माधुर्य का पर्याय है। सोम ही अग्नि की शक्ति है। पुरुष का निर्माण, सन्तति का निर्माण, पुरुष में सौम्यता भरकर भक्ति मार्ग प्रशस्त करना स्त्री शक्ति की ही उपलब्धियां कही गई हैं। स्त्री का यह सारा कर्म सूक्ष्म धरातल है जिसे पुरुष अनुभव में भी नहीं ले सकता। यही तो स्त्री की शक्तिरूपी दिव्यता है।
हमारे हृदय के तीन प्राण हैं—ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र (महेश)। यहां तीनों की शक्तियां- महासरस्वती, महालक्ष्मी, महाकाली ही स्त्रैण भाव की सूक्ष्म शरीर में पूर्ति करती हैं। स्त्री का परा शक्ति रूप पुरुष हृदय में ही प्रतिष्ठित रहता है। यही तीनों शक्तियों के सान्निध्य में कार्य करता है। सूक्ष्म और कारण शरीर साथ रहते हैं। अत: प्रारब्ध भी कारण शरीर में कर्मों का कारण बनता है। पुरुष हृदय का निर्माण-पोषण करता रहता है। पत्नी का शक्ति रूप यही है। प्रवृत्ति से निवृत्ति का मार्ग भी यहीं से निकलता है।
पुरुष शक्तिमान ही रहता है। उसका आग्नेय भाग ही निरन्तर पोषित होता है। सौम्य भाग अल्प रहने से संतुलित व्यवहार में कमी रह जाती है। विवाह के समय तक वह उष्ण बना रहता है। पत्नी के साहचर्य से सौम्यता ग्रहण करता जाता है। पत्नी की शक्ति भी भीतर का पौरुष अंश ही है। पत्नी का जीवात्मा का संकल्प ही इसका विकास है। वह भी अपने स्थूल भाव को पितृगृह में छोड़कर सूक्ष्म रूप में ही पति से युक्त होती है। यदि वह स्थूल भाव में आती तो उसका सूक्ष्म भाव सुप्त ही रहता। सिविल मैरिज (कोर्ट में विवाह) करने वाली स्त्री का सूक्ष्म भाव पति के हृदय तक पहुंच ही नहीं पाता। वहां दो शरीर ही मिलते हैं—अग्नि से सोम। दोनों एक-दूसरे की शक्ति नहीं बन पाते। शक्ति सूक्ष्म धरातल का तत्त्व है। स्थूल में मात्र अभिव्यक्ति है।
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