शरीर ही ब्रह्माण्ड– पुरुष भी स्त्रैण है
ब्रह्म और माया का निष्क्रिय सहचर भाव परात्पर है। इन्हीं के मध्य कामना और कर्म उत्पन्न होकर केन्द्र रूप अव्यक्त बनता है। यही आगे अव्यय पुरुष रूप में सृष्टि का आलम्बन (अकर्ता) बनता है। दिखाई नहीं देता। सम्पूर्ण सृष्टि-साकार-मायाभाव- स्त्रैण है। ब्रह्म की कामना को मूर्त रूप देने के लिए उसे कामना के प्रत्येक पहलू का अध्ययन करना पड़ता है। पूर्ण जाग्रत-पूर्ण दक्ष-चिन्तन/मननशील होना पड़ता है। ब्रह्म निष्कर्म होने से शून्य रूप होता है। माया के कार्य-कलापों से भी अनभिज्ञ होता है। ब्रह्म अब तक किसी भी रूप में माया को नहीं समझ पाया। उसके मन में तो एक ही नशा छाया होता है—एकोऽहं बहुस्याम् प्रजायेत्। यही इच्छा सबके मन में उठती है- एकोहं बहुस्याम्। सबके हृदय में ईश्वर जो बैठा है। पिछले अनेक जन्मों में लाखों जीवात्मा से आदान-प्रदान होता रहा है, वे आज जिस भी शरीर में हैं व्यक्ति को आकर्षित करेंगे। यह भी चंचलता का (मन की) एक प्रधान कारण है। कृष्ण स्वीकारते हैं कि मन चंचल है, कठिनता से वश में आता है। यह अभ्यास और वैराग्य से वश में होता है-अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।। (गीता 6.35) सबकुछ दिख रहा उल्टा-पुल्टा। ब्रह्म के विवर्त में ब्रह्म कहीं दिखाई ही नहीं देता। पुरुष शरीर हो अथवा स्त्री शरीर, दोनों ही अग्नि रूप हैं। पुरुष शरीर में अग्नि प्रधान है, स्त्री शरीर में सोमप्रधान है। पुरुष शरीर में भीतर सोम है, जहां ब्रह्म की प्रतिष्ठा है। अन्न और मन के माध्यम से चन्द्रमा ही सोम का अधिष्ठाता है। सोम ही कामना है। कामना का जनक होने से सोम की एक संज्ञा पति है। सोम स्नातक कहलाता है। स्त्री का सौम्य स्वरूप पुरुषाग्नि में आहुत होकर भीतर को जाता है। सम्पूर्ण शरीर से सोम एकत्र करके धातु क्रम के अन्त में शुक्र रूप एकत्र होता है। यही शुक्र सोम पुन: स्त्री शरीर में लौटता है- अग्नि रूप में वेदी में आहुत होने। हवि रूप में इसका प्रोक्षण* होता है। ”हे सन्तान! मैं तुझे अपने कुल-संकल्प रूप अग्नि के निमित्त करके सेचन करता हूं (गर्भाधान)।‘’ प्रत्येक सन्तान किसी उद्देश्य से उत्पन्न होनी चाहिए। वही उद्देश्य उसका देवता है। गर्भाधान पूर्व माता-पिता को इस योग्य होना चाहिए कि वे घोषणा कर सकें कि वे किस देवता को, किस उद्देश्य के लिए बुला रहे हैं। इस संकल्प में सुक्षिता* स्त्रियों का पूर्ण सहयोग आवश्यक है। यह यज्ञ उत्तम सन्तान के लिए किया जाता है।
पत्रिका में प्रकाशित अग्रलेख – विकास में भी दिखे चमक
मां का खाया अन्न शिशु शरीर की सामग्री बनता है। अन्न से माता-शिशु दोनों के मन का निर्माण होता है। आहार के साथ-साथ यदि माता अपने मन से भी शिशु मन का पोषण करती रहे, तो शिशु के मन की सौम्यता की पूर्ति होती जाएगी। ब्रह्म तो सौम्य ही रहेगा, निराकार ही रहेगा, सृष्टि से निर्लिप्त ही होगा। माया की सृष्टि के बाहर भी सोम है, भीतर भी सोम है। अत: सोम में लीन होने के लिए प्राणी की सौम्यता मूल सिद्धान्त है।सुक्षिता = प्रेरणा देने वाली