scriptसिंहासन खाली करो कि जनता आती है… | Leave the throne, the public is coming… | Patrika News
ओपिनियन

सिंहासन खाली करो कि जनता आती है…

जसबीर सिंह, पूर्व अध्यक्ष, राजस्थान अल्पसंख्यक आयोग

जयपुरJun 24, 2025 / 08:31 pm

Sanjeev Mathur

तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के आदेश पर 25 जून 1975 को देश में लगाया गया आपातकाल एक ऐसी घटना थी जब संविधान की समस्त मर्यादाओं का खुला उल्लंघन किया गया। संविधान द्वारा प्रदत्त नागरिक अधिकारों में भारी कटौती कर दी गई। इंदिरा गांधी के राजनीतिक विरोधियों को शर्मनाक तरीके से गिरफ्तार कर लिया गया तथा प्रेस पर सेंसरशिप लगाकर उसकी स्वतंत्रता का गला घोंट दिया गया। आपातकाल घोषित किए जाने से पहले देश में इंदिरा गांधी के शासन के प्रति जनता में निराशा तथा भ्रष्टाचार के कारण अशांति व विरोध का भाव सशक्त हो गया था। युवा वर्ग में अपने भविष्य के प्रति चिंता व्याप्त थी। समाजवादी चिंतन के नेतृत्वकर्ता जयप्रकाश नारायण, जो जे.पी. के नाम से मशहूर थे व जिन्होंने पूर्व में कुख्यात डकैतों को आत्मसमर्पण कर सामान्य जीवन जीने के लिए प्रेरित किया था, वह गुजरात व बिहार में चल रहे छात्र आंदोलन के केंद्र बिंदु बन गए थे। इंदिरा गांधी के शासन में व्याप्त भ्रष्टाचार व कुशासन का विरोध पहले राज्य स्तर पर गुजरात व बिहार में तथा उसके बाद पूरे देश में संपूर्ण क्रांति आंदोलन फैल गया। देश के जनमानस में उस समय व्याप्त निराशा को देखकर कवि दुष्यंत कुमार ने कहा भी ‘कैसे मंजर सामने आने लगे हैं, गाते-गाते लोग चिल्लाने लगे हैं। अरे अब तो इस तालाब का पानी बदल दो, ये कमल के फूल कुम्हालने लगे हैं।’ जयप्रकाश नारायण ने देश में कई रैलियों को संबोधित किया। इन रैलियों में वह उद्घोष लगाते थे ‘सिंहासन खाली करो, कि जनता आती है।’
12 जून 1975 को इलाहाबाद (अब प्रयागराज) उच्च न्यायालय को राजनेता राजनारायण द्वारा चुनावी भ्रष्टाचार के मामले में इंदिरा गांधी के विरुद्ध दायर याचिका पर ऐतिहासिक फैसला देना था। इस मुकदमे की सुनवाई पूर्ण होने के बाद जब जस्टिस जगमोहन सिन्हा फैसला लिखने लगे, उन पर सीआइडी द्वारा जासूसी भी कराई गई। फैसले की गोपनीयता को बरकरार रखने के लिए जस्टिस सिन्हा ने इस चुनाव याचिका के पक्ष व विपक्ष में दो फैसले लिखे। 12 जून 1975 को इस उच्च न्यायालय के दूसरी मंजिल पर कोर्ट रूम स्थित रूम नं. 24 से सुबह 10 बजे जस्टिस सिन्हा ने राजनारायण की याचिका स्वीकार करते हुए इंदिरा गांधी के चुनाव को रद्द कर दिया। खचाखच भरे कोर्ट में एक बार तो सन्नाटा छा गया। न्यायमूर्ति सिन्हा द्वारा 258 पृष्ठों के फैसले में इंदिरा गांधी को चुनाव में भ्रष्ट तरीके अपनाने का दोषी करार दिया। उनके चुनाव को अवैध घोषित किया व उनके 6 साल तक चुनाव लडऩे पर पाबंदी लगा दी। न्यायालय के फैसले को इंदिरा गांधी व कांग्रेस पार्टी ने स्वीकार करने के बजाय इसे देश के समक्ष चुनौती के कुत्सित प्रयास में बदलने की ठान ली। उनके सलाहकार प्रमुखत: पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर राय व अन्य ने अनुच्छेद 352 के तहत देश में आपातकाल घोषित करने की सलाह दी। खुद को असुरक्षित महसूस कर रहीं इंदिरा गांधी की सलाह पर राष्ट्रपति फखरूद्दीन अहमद ने पूरे देश में आपातकाल की घोषणा कर दी। 25 जून की रात को ही दिल्ली के बहादुरशाह जफर मार्ग के इलाके की बिजली काट दी गई, जहां अधिकांश मीडिया घरानों के मुख्यालय थे। कोई भी समाचार पत्र नहीं छप सका और देशवासियों को आपातकाल लगने की खबर अगली सुबह ऑल इंडिया रेडियो पर मिली। यह प्रेस पर कड़ी सेंसरशिप की शुरुआत थी व विशेषकर वह मीडिया निशाने पर था, जो इंदिरा गांधी व उनके पुत्र संजय गांधी की दमनकारी नीतियों व कार्यों की आलोचना करता था। देशवासी अपने ही देश की वास्तविक खबरों के लिए ऑल इंडिया रेडियो के बजाय बीबीसी लंदन के उद्घोषक रत्नाकर भारती और वायस ऑफ अमरीका को सुनते थे।
निवारक निरोधक कानूनों का घोर दुरुपयोग करते हुए देश के शीर्ष विपक्षी नेताओं मोरारजी देसाई, जयप्रकाश नारायण, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, चौधरी चरण सिंह, मुलायम सिंह यादव, कांग्रेस के ही युवा तुर्क नेताओं चंद्रशेखर, मोहन घारिया, कृष्णकांत, रामधन जैसे हजारों नेताओं को जेल में डाल दिया गया। भैरोंसिंह शेखावत को पहले खातीपुरा नर्सरी, फिर सरिस्का डाक बंगले व उसके बाद रोहतक जेल में रखा गया। जयपुर के सेंट्रल जेल में भैरोंसिंह शेखावत, सोहन सिंह, दौलतराम सारण, नाथू सिंह गुर्जर, भंवरलाल शर्मा, गिरधारी लाल भार्गव, उजला अरोड़ा व अन्य कई नेता नजरबंद रहे। पूरे देश को ही लगभग काल कोठरी व कारागृह में बदल दिया गया। जयप्रकाश नारायण इस अंधेरे के काल में भी रोशनी की मुख्य संभावना बने हुए थे। कवि दुष्यंत कुमार ने इस समय देश की भयावह स्थिति का जिक्र करते हुए लिखा ‘एक बूढ़ा आदमी (जय प्रकाश जी) इस मुल्क में, या कहूं मैं इस अंधेरी कोठरी में एक रोशनदान है।’ विपक्ष के जेल में होने के कारण विधायी शक्तियों का असीमित विस्तार कर दिया गया और न्यायपालिका के अधिकार सीमित कर दिए गए। आपातकाल की न्यायिक समीक्षा नहीं हो सकती थी व प्रधानमंत्री के चुनाव को अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती थी। जनसंख्या नियंत्रण के नाम पर गरीब पुरुषों की बड़े पैमाने पर जबरन नसबंदी कर दी गई। अप्रेल 1976 में दिल्ली के तुर्कमान गेट पर तोडफ़ोड़ के दौरान व अक्टूबर 1976 में उत्तरप्रदेश के मुजफ्फरनगर में नसबंदी विरोधी प्रदर्शन में सैकड़ों लोग मारे गए। उस समय के इस बर्बर व स्वछंद शासन के विरुद्ध नारा लगता था ‘तानाशाही तेरे तीन दलाल- शुक्ला, मेहता, बंसीलाल’। इशारा विद्याचरण शुक्ला सूचना प्रसारण मंत्री, ओम मेहता गृहराज्य मंत्री व बंसीलाल रक्षा मंत्री की तरफ होता था। इंदिरा गांधी व संजय गांधी के प्रति चाटुकारिता पराकाष्ठा पर थी। कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष देवकांत बरूआ अपने भाषणों में कहते रहते थे- ‘इंदिरा इज इंडिया, इंडिया इज इंदिरा।’
आपातकाल के दौरान संगठित विरोध को निरंतरता के साथ करने का श्रेय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) को जाता है। आपातकाल की घोषणा के तुरंत बाद 4 जुलाई 1975 को संघ पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। तानाशाही के उस दौर का भूमिगत रहकर संगठित विरोध का कार्य वीरतापूर्वक संघ परिवार ने किया। द इंडियन रिव्यू के संपादक एम.सी. सुब्रहमण्यम ने लिखा आपातकाल के दौरान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोगों ने संघर्ष को जारी रखा। सत्याग्रह का सफल संचालन करके देशभर में संपर्क सूत्र कायम रखना, आंदोलन के लिए धन की व्यवस्था कर गुप्त साहित्य का वितरण करना तथा बिना किसी भेदभाव के सभी बंदियों तथा उनके परिवारों की सहायता जारी रखना आदि इनमें शामिल था। संघ का कार्य आपातकाल में इतनी कुशलता से चलाया गया कि संघ को कुचलने के सभी प्रयास करने के बाद इंदिरा गांधी को 1976 में एक बैठक में कहना पड़ा- ‘आरएसएस के 10 प्रतिशत कार्यकर्ता भी पकड़े नहीं जा सके हैं। वे भूमिगत हो गए हैं। प्रतिबंध लगने पर भी संघ विशृंखलित नहीं हुआ है। इसके विपरीत केरल जैसे नए-नए क्षेत्रों में वह जड़ें जमा रहे हैं।’ वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी एक सिख की वेशभूषा तथा अन्य रूपों में भूमिगत रहकर आपातकाल के विरुद्ध इस आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई। प्र.ग. सहस्त्रबुद्धे ने अपनी पुस्तक ‘आपातकालीन संघर्ष गाथा’ में लिखा- ‘आपातकाल में संघ ने विशाल सत्याग्रह किया। हजारों परिवार दुख में डूब गए। सैंकड़ों का बलिदान हुआ। एक लाख से अधिक लोग तानाशाही, दमन और आतंक का सामना करते हुए सत्याग्रह में कूदे, बंदी बने। इस पूरे संघर्ष में संघ के स्वयंसेवक न अलसाये, न सुस्ताये, न ललचाये।’
मीडिया के भी अनेकोनेक व्यक्तियों का साहसपूर्ण कृतित्व रहा। ऐसे मीडियाकर्मी न झुके, न रुके, न थमे, न बिके। इनमें एक्सप्रेस समूह के रामनाथ गोयनका, आर्गनाइजर के के.आर. मलकानी, मेनस्ट्रीम के निखिल चक्रवर्ती, राजस्थान पत्रिका के कर्पूरचन्द्र कुलिश, फ्रीडम फस्र्ट के मीनू मसानी, सेमीनार के रमेश थापर जैसे अनेकोनेक शामिल थे। आपातकाल उतने ही अप्रत्याशित रूप से समाप्त हुआ, जितना अप्रत्याशित रूप से शुरू हुआ था। जनवरी 1977 में इंदिरा गांधी को उनकी खुफिया एजेंसियों ने रिपोर्ट दी कि चुनाव होने पर उनको जीत प्राप्त होगी। उन्होंने लोकसभा चुनाव की घोषणा की व अनेक कैद हस्तियों को रिहा कर दिया। पूरा विपक्ष तुरंत ही एकजुट हो गया। विपक्ष ने जनता पार्टी के रूप में अपने को संगठित किया। विपक्ष की देशभर में बड़ी चुनावी सभाएं होने लगीं। इंदिरा गांधी की कांग्रेस पार्टी, मोरारजी देसाई के नेतृत्व वाली जनता पार्टी से बुरी तरह चुनाव में हार गई। रायबरेली से इंदिरा गांधी व अमेठी से उनके पुत्र संजय गांधी चुनाव हार गए। 21 मार्च 1977 को मतगणना व भारी पराजय के बाद इंदिरा गांधी की पराजित सरकार ने आधिकारिक तौर पर आपातकाल को हटा लिया।

Hindi News / Opinion / सिंहासन खाली करो कि जनता आती है…

ट्रेंडिंग वीडियो