याद से भी ज्यादा जरूरी है आपातकाल से सबक सीखना
राज कुमार सिंह, वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार


भारतीय लोकतंत्र का काला अध्याय रहे आपातकाल की घोषणा को 50 साल होने पर ‘संविधान हत्या दिवस’ मनाया जा रहा है। संविधान प्रदत्त नागरिक अधिकारों समेत कमोबेश लोकतंत्र को ही स्थगित कर देने वाला आपातकाल दरअसल लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में भी पनप सकने वाली सत्ता-लोलुपता और राजनीतिक विकृतियों की ही देन था। इसलिए उसे याद रखना जरूरी है- पर उससे सही सबक सीखना विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के सुरक्षित भविष्य के लिए और भी ज्यादा जरूरी है। इन 50 सालों में दो नई पीढिय़ां आ गई हैं, जिन्हें आपातकाल की बाबत उतना ही पता है, जितना राजनीतिक दलों ने अपने-अपने एजेंडा के तहत उन्हें बताया है। पहला जरूरी सबक तो उन परिस्थितियों से ही सीखना चाहिए, जिनके चलते 1971 में पृथक बांग्लादेश बनवाने वाली प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने ही 1975 में भारत पर आपातकाल थोप दिया। एकमात्र आधार भले न रहा हो, पर इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री बनने में देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू की बेटी होना भी एक कारण रहा। वर्ष 1969 में कांग्रेस विभाजन के बाद 1971 की चुनावी जीत से पार्टी और सत्ता में वर्चस्व स्थापित कर चुकीं इंदिरा छोटे बेटे संजय गांधी को उत्तराधिकारी बना कर लोकतंत्र में भी राजवंश की स्थापना के सपने देखने लगी थीं। संजय गांधी संविधानेतर सत्ता-केंद्र बन गए थे।
सत्ताधीशों को अकसर सब कुछ अपने मनोनुकूल लगता है। राजनीतिक भ्रष्टाचार तथा महंगाई-बेरोजगारी जैसे मुद्दों पर गुजरात और बिहार में जन आंदोलन शुरू हो चुके थे। गुजरात में कांग्रेस विधानसभा चुनाव भी हार गई थी। स्वयं को चुनौती से परे समझने लगीं इंदिरा गांधी के लिए ये चिंताजनक संकेत थे, पर खतरे की आहट लेकर आया उनकी संसद सदस्यता रद्द कर छह साल तक चुनाव लडऩे के अयोग्य घोषित करने वाला इलाहाबाद उच्च न्यायालय का फैसला। 1971 का लोकसभा चुनाव इंदिरा ने रायबरेली से जीता था, जिसे पराजित उम्मीदवार समाजवादी नेता राजनारायण ने अदालत में चुनौती दी। राजनारायण ने इंदिरा पर निजी सचिव यशपाल कपूर को चुनाव एजेंट बनाने, स्वामी अद्वैतानंद को 50 हजार रुपए घूस देकर निर्दलीय उम्मीदवार बनाने, चुनाव प्रचार में वायु सेना के विमान इस्तेमाल करने, डीएम-एसपी की अनुचित मदद लेने तथा मतदाताओं के बीच शराब-कंबल बांटने जैसे आरोप लगाए थे। उसी मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश जगमोहन लाल सिन्हा का फैसला आया 12 जून को। यह सत्ता के अर्श से अचानक फर्श पर आ जाने जैसी स्थिति थी। इंदिरा के पास एक ही संविधान सम्मत-लोकतांत्रिक रास्ता था- उच्च न्यायालय के फैसले को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती देते हुए अंतिम फैसले तक किसी विश्वसनीय को प्रधानमंत्री बनवा देतीं। कहा जाता है कि उन्होंने इस विकल्प पर विचार भी किया, पर उनके पुत्र संजय गांधी सहमत नहीं हुए। इंदिरा गांधी को सर्वोच्च न्यायालय से भी निराशा हाथ लगी। 24 जून को सर्वोच्च न्यायालय ने स्टे से इनकार करते हुए इंदिरा के लोकसभा की कार्यवाही में भाग लेने और वोट डालने पर भी प्रतिबंध लगा दिया। अदालती फैसलों के बावजूद सत्ता न छोडऩे की इंदिरा की जिद से विपक्ष को बड़ा मुद्दा मिल गया।
25 जून, 1975 को दिल्ली के ऐतिहासिक रामलीला मैदान में विपक्षी दलों की जनसभा में जयप्रकाश नारायण ने इंदिरा गांधी की सरकार को ‘असंवैधानिक’ बताते हुए केंद्रीय कर्मचारियों और पुलिस से उसके ‘आदेश न मानने’ का ‘आह्वान’ किया। दरअसल उसे ही आधार बना कर ‘आंतरिक अशांति की आशंका’ जताते हुए 25/26 जून की रात राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद के हस्ताक्षर से देश में आपातकाल घोषित कर दिया गया। लंबे संघर्ष और असंख्य बलिदानों के बाद 1947 में स्वतंत्र हुआ भारत जैसे फिर जंजीरों में जकड़ दिया गया। आधी रात से ही विपक्षी नेताओं की गिरफ्तारियां शुरू हो गईं तो देश की राजधानी दिल्ली में अखबारों के दफ्तरों की बिजली तक काट दी गई। असहमति के तमाम स्वरों को दबाना शुरू हो गया। देश में ‘इंदिरा इज इंडिया-इंडिया इज इंदिरा’ जैसे नारे लगने लगे। 21 महीने चले आपातकालीन दमनचक्र के किस्से आज भी रोंगटे खड़े कर देते हैं। इसीलिए ‘लोकनायक’ जयप्रकाश की अगुवाई में ‘संपूर्ण क्रांति’ के रूप में 21 महीने चले संघर्ष के बाद मार्च, 1977 में हुए आम चुनाव में नवगठित विपक्षी दल जनता पार्टी की ऐतिहासिक जीत को दूसरी आजादी का नाम दिया गया। आपातकाल का जन्म लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित प्रधानमंत्री की ही लोकतंत्र में घटती आस्था और बढ़ती सत्ता लोलुपता से पनपते वंशवाद से हुआ था। बेहद लोकप्रिय राजनेता और सख्त प्रशासक रहीं इंदिरा को सत्ता और पुत्र के मोह ने ही तानाशाह बनने को प्रेरित किया था, पर विडंबना देखिए कि दूसरी आजादी के जरिये बनी सरकार आपातकाल जितने समय ही चल पाई। जिस तरह 1947 में देश आजाद होते ही कांग्रेसियों में सत्ता-संघर्ष छिड़ गया था और महात्मा गांधी तक की किसी ने नहीं सुनीं, उसी तरह सत्ता-संघर्ष में उलझे जनता पार्टी के क्षत्रपों ने भी बीमार जेपी की एक नहीं सुनीं। नतीजतन जनवरी, 1980 में हुए मध्यावधि चुनाव में ही इंदिरा गांधी ने सत्ता में जोरदार वापसी कर ली।
दरअसल अहमन्यता, सत्ता लोलुपता और वंशवादी सोच मूलत: अलोकतांत्रिक और असंवैधानिक हैं, पर हमारे राजनेता इसे समझने को तैयार नहीं। राहुल गांधी ने भले आपातकाल को गलती मान लिया हो, पर तब आपातकाल के विरोध में कांग्रेस में कोई ज्यादा मुखर नहीं हुआ था। उसके बाद भी हमारी राजनीति में दलीय अनुशासन के नाम पर चाटुकार संस्कृति ही परवान चढ़ी है। आपातकाल में असहमति के तमाम स्वर दबा दिए गए थे, तो उसके बाद भी उनका स्वागत तो नजर नहीं आता, जबकि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता लोकतंत्र की प्राणवायु है। दूसरी आजादी की लड़ाई में ‘सत्ता-वैरागी’ जेपी का नेतृत्व और जनता में ‘हम भारत के लोग’ की सामूहिक चेतना निर्णायक हथियार बने थे, लेकिन आज वैसी कोई संभावना नजर नहीं आती। फिर हमने आपातकाल से क्या सबक सीखा?
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