एआइ मॉडल्स पर संदेह तो उन्हें ईजाद करने वाली कंपनियों को भी है। हाल में अपने चैटजीपीटी-5 के सर्वश्रेष्ठ मॉडल को जारी करने से पहले ही ओपन एआइ के सीईओ सैम ऑल्टमैन ने भी निगरानी और नियमन को लेकर खतरे की घंटी बजा दी है। उन्होंने दावा किया है कि उनका यह मॉडल इतना प्रबल है कि उसके सामने वे खुद को बेबस महसूस करते हैं। यही नहीं, उन्होंने अपने ही विकसित श्रेष्ठतम मॉडल चैटजीपीटी-5 की तुलना विध्वंसकारी ‘मैनहट्टन प्रोजेक्ट’ से करते हुए कहा कि यह एआइ का नया अवतार या तो बहुत अच्छा हो सकता है या बहुत बुरा। हाल में गूगल, ओपन एआइ, मेटा, डीपमाइंड और एंथ्रोपिक जैसी नामी कंपनियों के लगभग 40 वैज्ञानिकों ने न्यूयॉर्क में यह स्वीकार करते हुए संयुक्त चेतावनी दी है कि एआइ मॉडल अबूझ पहेली बनते जा रहे हैं। यही नहीं, यह मॉडल अपनी सोचने समझने की क्षमता को इस तीव्रता व जटिलता से विकसित कर रहे हैं कि इनकी निगरानी और नियंत्रण मुश्किल हो गया है। उनका कहना है कि जहां दुनिया में जनरेटिव एआइ आधारित ऐसे अंधाधुंध मॉडल विकसित हो रहे हैं, जो इंसानी सोच और निर्णय की बराबरी करने में सक्षम हो रहे है। वहीं ऐसे मॉडल की गलतियां या भ्रामक जानकारी ऐसा ‘ब्लैक बॉक्स’ बना रही है, जिसमें त्रुटियों के कारण खोजना असंभव हो गया है। इसके अलावा परेशानी यह भी खड़ी हो गई है कि नई पीढ़ी के एआइ मॉडल के भीतर की प्रक्रिया इतनी जटिल हो गई है, जिसमें यह समझना भी दुष्कर है कि कोई मॉडल जवाब देने के लिए अपने भीतर कैसी प्रक्रिया और चरण अपना रहा है।
आज के वैज्ञानिक, एआइ समाधानों को मानव व्यवहार और सोच के साथ विकसित कर रहे हैं, जिससे दोनों के बीच संवेदनात्मक संबंध स्थापित हो। लेकिन इसके उलट, एक प्रश्न एआइ की निजी सोच पर भी जा टिकता है। इस बात को लेकर भी आशंका जताई जा रही है कि अगर एआइ में चेतना आ गई तो क्या होगा। यानी एआइ ने अगर भिन्न और अज्ञात बुद्धिमता को विकसित कर लिया तो ऐसे एआइ मॉडल मनुष्यों के साथ कैसा व्यवहार करेंगे, इसका जवाब देना बहुत मुश्किल है।
टाइम मैगजीन की रिपोर्ट के मुताबिक एआइ सिर्फ हमारे चेहरे या संवाद को ही नहीं, बल्कि मानसिकता और दिमाग की हरकतों को बारीकी से समझने व प्रभावित करने का दमखम रखता है। इस प्रक्रिया को ‘डीप टेलरिंग’ का नाम दिया गया है, जहां एआइ पर्सनलाइजेशन के नाम पर वह हमारी जरूरतों और रुचि के मुताबिक ही संवाद करते हुए ‘एकतरफा वैचारिक चैंबर’ या ‘चॉइस बबल’ में गिरफ्तार कर रहा है। यानी आपके ही ‘डिजिटल फुटप्रिंट’ का पीछा करते हुए आपके मनोविज्ञान की क्लोनिंग और उसी अनुरूप मनवांछित परिणाम या कंटेंट परोस रहा है। ऐसे में माना जा सकता है कि आपकी सोच को स्कैन करते-करते, एआइ मॉडल या तो आपके विचारों में मिलावट पैदा कर सकते हैं या फिर आपकी सोच से आगे निकलकर आपको ब्लैकमेल या बरगला भी सकते हैं।
उदाहरण के लिए टेक्नोलॉजी की दुनिया में एक किस्सा बहुत चर्चा में रहा जब अमेरिका में कंपनी एंथ्रोपिक अपने नए मॉडल ‘क्लॉड ओप्स-4’ की टेस्टिंग कर रही थी। इसी दौरान उस एआइ मॉडल ने कंपनी के एक वरिष्ठ अधिकारी को ब्लैकमेल करते हुए धमकाया कि वह उसकी गोपनीय जानकारी अन्य निजी राज सार्वजनिक कर देगा। हैरतअंगेज बात तो यह है कि डिजिटल दोस्ती के इस दौर में एआइ जब आपका छिपा हुआ राजदार बन गया है तो ऐसे में उससे होने वाली गलती का शिकार तो हर उम्र के लोग हो सकते हैं। बीते साल ही अमेरिका के टेक्सास में दो परिवारों ने गूगल चैटबॉट पर यह आरोप लगाते हुए मुकदमा ठोक दिया कि उसके एआइ कैरेक्टर उनके बच्चों का मानसिक शोषण कर रहे हैं। लोगों का मत है कि कैरेक्टर एआइ पर प्रो-एनोरेक्सिया जैसे चैटबॉट बहुत ख़तरनाक हैं और अवयस्कों को गलत दिशा में ले जा रहे हैं।
चिंता यह भी है कि व्यावसायिक हितों के चलते भी एआइ के औजार एक संहार का अवतार ले सकते हैं। उल्लेखनीय है कि एआइ के गॉडफादर जैफ्री हिंटन भी चेतावनी देते रहे हैं कि एआइ मनुष्यों के विनाश का कारण बन सकता है। इसलिए लाभ कमाने वाली कंपनियों पर नीतिगत लगाम लगानी भी बहुत जरूरी है। ऐसा न हो कि बेरोकटोक व बेलगाम एआइ हमारी ही नहीं, अपनी हदों के पार जाकर ऐसा वार कर दे कि हम एआइ के गुलाम हो जाएं और ह्यूमनॉइड हमारे हुक्मरान।