दिल्ली हाईकोर्ट ने मामले में सुनाई एक दिन की सजा
दिल्ली हाईकोर्ट ने मामले में सुनवाई के दौरान ‘स्वॉर्ड ऑफ डैमोकल्स’ को एक उदाहरण के तौर पर बताते हुए समझाया कि यह प्रतीक उस सतत् भय को दर्शाता है जो किसी व्यक्ति पर लंबे समय तक मंडराता रहता है। जैसे किसी के सिर के ऊपर एक पतले धागे से तलवार लटकी हो। यह स्थिति न्याय के बुनियादी सिद्धांतों के विरुद्ध है। अदालत ने यह भी माना कि दोषी अब 90 साल के हो चुके हैं और कई गंभीर बीमारियों से ग्रस्त हैं। इस आयु में उन्हें कारावास में डालना उनके जीवन को स्थायी क्षति पहुंचा सकता है। न्यायालय ने यह भी रेखांकित किया कि इतने लंबे समय तक अपील लंबित रहना संविधान के अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार) का स्पष्ट उल्लंघन है।
ये है पूरा मामला
यह मामला 1984 का है। जब भारतीय राज्य व्यापार निगम (STC) के तत्कालीन चीफ मार्केटिंग मैनेजर सुरेंद्र कुमार पर एक निजी फर्म से 15,000 रुपये रिश्वत मांगने का आरोप लगा था। शिकायतकर्ता हामिद ने सीबीआई को इसकी सूचना दी थी। जिसके बाद छापेमारी में सुरेंद्र कुमार को रंगे हाथों पकड़ा गया। इसके बाद साल 2002 में सत्र न्यायालय ने सुरेंद्र कुमार को दोषी ठहराते हुए तीन साल का कारावास और 15,000 रुपये का जुर्माने की सजा सुनाई थी।
सत्र न्यायालय के फैसले को हाईकोर्ट में दी चुनौती
इसके बाद सुरेंद्र कुमार ने सत्र न्यायालय के फैसले के खिलाफ दिल्ली हाईकोर्ट में अपील दायर की। यह अपील 22 सालों तक लंबित रही। इसके पहले निचली अदालत के फैसले तक पहुंचने में ही 19 साल लग गए थे। मामले की सुनवाई के दौरान दिल्ली हाईकोर्ट ने पाया कि दोषी ने साल 2002 में ही सत्र अदालत के फैसले के अनुसार जुर्माना भर दिया है। इन तमाम पहलुओं पर विचार करते हुए हाईकोर्ट ने अपील को आंशिक रूप से स्वीकार करते हुए दोषी की सजा को घटाकर एक दिन कर दिया और उसे पहले से पूरी हुई सजा के तौर पर मान लिया। अदालत के अनुसार, इस तरह का विलंबित न्याय न केवल अस्वीकार्य है, बल्कि यह व्यक्ति की गरिमा और संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन भी है। अब सुरेंद्र कुमार को सिर्फ एक दिन जेल में रहना होगा।