इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने दिया अहम फैसला
न्यायमूर्ति संदीप मेहता (Justice Sandeep Mehta) और न्यायमूर्ति पी.बी. वराले (Justice P.B. Varale) की पीठ राजस्थान सरकार द्वारा दायर एक आपराधिक अपील पर विचार कर रही थी, जिसमें राजस्थान उच्च न्यायालय के उस फैसले को चुनौती दी गई थी, जिसमें प्रतिवादी-आरोपी को हत्या के अपराध से बरी कर दिया गया था।
कब हुई थी हत्या?
खंडपीठ ने अपने आदेश में दिसंबर 2008 में अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश द्वारा पारित फैसले को खारिज कर दिया, जिसमें प्रतिवादी को भारतीय दंड संहिता 1860 की धारा 302 के तहत दंडनीय अपराध के लिए दोषी ठहराया गया था और उसे आजीवन कारावास और 100 रुपये का जुर्माना भरने की सजा सुनाई थी और जुर्माना न भरने की स्थिति में 3 महीने का अतिरिक्त साधारण कारावास भुगतने का आदेश दिया था। मुकदमे के दौरान प्रतिवादी पर छोटू लाल की हत्या का आरोप लगाया गया, जो 1 और 2 मार्च, 2007 की मध्य रात्रि को हुई थी। अज्ञात हमलावरों के खिलाफ प्रारंभ में प्राथमिकी दर्ज की गई थी और बाद में संदेह और परिस्थितिजन्य साक्ष्य के आधार पर प्रतिवादी को मामले में अभियुक्त बनाया गया।
पत्नी पर बुरी नजर का लगाया था आरोप
अभियोजन पक्ष ने कारण के रूप में परिस्थितिजन्य साक्ष्य प्रस्तुत किए और यह आरोप लगाया गया कि प्रतिवादी की मृतक की पत्नी पर बुरी नजर थी। अपराध के हथियार की बरामदगी और एफएसएल रिपोर्ट से संकेत मिलता है कि हथियार पर मौजूद रक्त समूह मृतक के रक्त समूह (बी +) से मेल खाता है।
राजस्थान उच्च न्यायालय ने प्रतिवादी को कर दिया था बरी
निचली अदालत के निष्कर्षों के विपरीत राजस्थान उच्च न्यायालय ने कहा कि अभियोजन पक्ष मामले में आरोपी के अपराध को साबित करने के लिए आवश्यक परिस्थितियों की पूरी श्रृंखला को साबित नहीं कर सका जो पूरी तरह से परिस्थितिजन्य साक्ष्य पर आधारित थी। यही वजह है कि राजस्थान उच्च न्यायालय ने प्रतिवादी को बरी कर दिया।
राजस्थान कोर्ट का सुप्रीम कोर्ट ने फैसला बरकरार रखा
राजस्थान उच्च न्यायालय के दृष्टिकोण से सहमति जताते हुए न्यायमूर्ति मेहता की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा, “हमारा मानना है कि अभियोजन पक्ष द्वारा जिन परिस्थितियों पर भरोसा किया गया है। मकसद और खून से सने हथियार की बरामदगी के होने के बावजूद अभियुक्त के खिलाफ आरोप स्थापित करने के लिए आवश्यक परिस्थितियों की पूरी श्रृंखला नहीं बन सकती।” सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा, “ऐसा प्रतीत होता है कि उच्च न्यायालय ने एफएसएल रिपोर्ट को नजरअंदाज कर दिया है, जिस तथ्य पर अपीलकर्ता (राज्य सरकार) के विद्वान वकील ने जोर दिया था। हालांकि, हमारे विचार में यदि एफएसएल रिपोर्ट को भी ध्यान में रखा जाता है तब भी इस तथ्य के अलावा कि अभियुक्त की निशानदेही पर बरामद हथियार में मृतक के रक्त समूह (बी+) के समान ही रक्त समूह पाया गया जिसका उक्त रिपोर्ट से कोई खास संबंध नहीं है।”
सुप्रीम कोर्ट ने दिया ये फैसला
सर्वोच्च न्यायालय ने अपने पिछले फैसले का हवाला देते हुए कहा कि केवल खून से सना हुआ हथियार बरामद होना, भले ही उसका रक्त समूह पीड़ित के ब्लड ग्रुप से मेल खाता हो, हत्या का आरोप साबित करने के लिए पर्याप्त नहीं होगा। खंडपीठ ने मकसद के सिद्धांत को खारिज करते हुए कहा कि इस संबंध में साक्ष्य बहुत अस्पष्ट और अस्थिर प्रतीत होते हैं। न्यायमूर्ति मेहता की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा कि सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों की श्रृंखला से कानून अच्छी तरह स्थापित है कि बरी किए जाने के खिलाफ अपील में हस्तक्षेप केवल तभी किया जा सकता है जब साक्ष्य के आधार पर एकमात्र संभावित दृष्टिकोण आरोपी के अपराध की ओर संकेत करता हो तथा उसकी निर्दोषता को खारिज करता हो।
सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकार की अपील की खारिज
राज्य सरकार की अपील को खारिज करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने कहा, “वर्तमान मामले में हम पूरी तरह से संतुष्ट हैं कि अभियोजन पक्ष आरोपों को पुख्ता साबित करने के लिए ठोस सबूत पेश करने में विफल रहा। एकमात्र संभावित दृष्टिकोण उच्च न्यायालय द्वारा लिया गया दृष्टिकोण है, अर्थात अभियुक्त की निर्दोषता।” (Source: IANS)