दिल्ली को अक्सर ‘रेप कैपिटल’ कहा जाता है, और इसकी वजह है यहां रोज़ाना सामने आने वाले रेप के मामले। इस डरावनी पहचान की शुरुआत साल 1978 में एक ऐसे मामले से हुई थी, जिसने पूरे दिल्ली शहर को झकझोर कर रख दिया था। यह केस ‘रंगा-बिल्ला’ के नाम से मशहूर है। इन दोनों अपराधियों को 1982 में दिल्ली की तिहाड़ जेल में फांसी दी गई थी।
क्या है रंगा-बिल्ला रेप केस –
यह घटना 26 अगस्त 1978 को हुई थी। दिल्ली के धौला कुआं इलाके में रहने वाले नेवी अफसर मदन मोहन चोपड़ा की बेटी गीता और बेटा संजय अपने घर से ऑल इंडिया रेडियो (AIR) के ऑफिस के लिए निकले मगर वे रास्ते से ही गायब हो गए। गीता, जो उस समय दिल्ली यूनिवर्सिटी के जीजस एंड मैरी कॉलेज में सेकेंड ईयर की छात्रा थी, और उसका छोटा भाई संजय, शाम 8 बजे के “युववाणी” प्रोग्राम में हिस्सा लेने जा रहे थे। उस दिन तेज़ बारिश हो रही थी, इसलिए दोनों ने रास्ते में एक परिचित, डॉ. एम.एस. नंदा, से लिफ्ट ली। नंदा ने उन्हें गोले डाकखाना के पास उतारा, जो AIR ऑफिस से बस 1 किलोमीटर दूर था।
गोल मार्केट से दिन दहाड़े हुआ अपहरण
लेकिन वहां से पैदल जाते समय, एक फिएट कार आकर रुकी और दोनों का अपहरण कर लिया गया। गोल मार्केट चौराहे पर स्थित बिजली के सामान की दुकान के मालिक ने उस कार में हलचल देखी तो उन्होंने पुलिस को अपहरण की सूचना दी। कार की पिछली सीट से गीता मदद के लिए चिल्ला रही थी। कंट्रोल रूम ने इलाके में गश्त कर रहे वाहनों को वायरलेस अलर्ट भेजा। उसी दौरान एक इसी घटना से संबंधित रिपोर्ट राजिंदर नगर थाने में दर्ज की गई थी। क्योंकि इंजीनियर इंद्रजीत सिंह नोआटो ने लोहिया अस्पताल के पास से उसी कार को गुजरते देखा था। इंद्रजीत स्कूटर पर सवार थे और उन्होंने लड़की की चीखें सुनी थीं।
दो दिन बाद मिली दोनों बच्चों की लाश
उन्होंने जैसे ही चौराहे के पास खड़ी कार के पास अपना स्कूटर रोका तो दोनों भाई-बहन पिछली सीट पर बैठे हुए थे। संजय ने इंद्रजीत को अपनी खून से सनी शर्ट की ओर इशारा किया। इस दौरान कार लालबत्ती पार करके निकाल गई। इसके बाद दोनों की लाशें दो दिन बाद यानी 28 अगस्त, 1978 को पशु चराने वाले ने रिज के घने जंगल में मिलीं। पोस्टमार्टम से साफ हो गया कि गीता के साथ दुष्कर्म किया गया था, और फिर दोनों की निर्मम हत्या कर दी गई थी।
रंगा और बिल्ला ने क्या था ये संगीन अपराध
इस घटना को अंजाम कुलजीत उर्फ रंगा और जसबीर सिंह उर्फ बंगाली उर्फ बिल्ला ने दिया था। रंगा और बिल्ला बेहद खूंखार अपराधी थे। उन्होंने काफी लूट, हत्याएं, समेत तमाम आपराधिक घटनाओं को अंजाम दिया था। वह घटना के बाद से फरार चल रहे थे। दोनों आगरा में थे। इसी दौरान दोनों आगरा स्टेशन के पास कालका मेल ट्रेन में चुपचाप चढ़ गए। यह ट्रेन दिल्ली की ओर जा रही थी। लेकिन जिस डिब्बे में दोनों चढ़े, वह कोच सेना का था। इसी दौरान उनको जवानों ने पकड़ लिया और दिल्ली पहुंचते ही पुलिस के हवाले किया।
1982 में तिहाड़ जेल में फांसी दी गई
पुलिस पूछताछ में दोनों ने बताया कि अपहरण के बाद उन्हें पता चला कि दोनों बच्चे एक नेवी अफसर के हैं, इसलिए पकड़े जाने के डर से उन्होंने पहले गीता से बलात्कार किया, फिर दोनों को मार डाला। इस हैवानियत के लिए दिल्ली हाईकोर्ट ने दोनों को फांसी की सज़ा सुनाई, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने भी बरकरार रखा। 7 अप्रैल 1979 को अंतिम फ़ैसला आया, और 31 जनवरी 1982 को दोनों को तिहाड़ जेल में फांसी दी गई।
फांसी के 2 घंटे बाद भी जिंदा रहा रंगा
इस फांसी के लिए मेरठ और फरीदकोट से दो जल्लाद फकीरा और कालू को बुलाया गया था। लेकिन लेकिन फांसी के दौरान कुछ ऐसा हुआ जिसकी कल्पना किसी ने भी नहीं की थी। तिहाड़ जेल में ‘फांसी कोठी’ में एक साथ दोनों को फांसी के फंदे पर लटकाया गया था। हैरानी की बात यह है कि फांसी के 2 घंटे बाद जब नियमानुसार डॉक्टर्स ने जांच की तो बिल्ला तो मर चुका था, लेकिन रंगा की नब्ज चल रही थी। इस बात समेत कई चीजों का जिक्र दिल्ली के तिहाड़ जेल के पूर्व कानून अधिकारी सुनील गुप्ता और पत्रकार सुनेत्रा चौधरी द्वारा लिखी गई किताब ‘ब्लैक वॉरंट’ में किया गया है। यह भी पढ़ें – भाभी का काटा गला, खून से सने हथियार और कटे हुए सिर के साथ सड़कों पर घूमता दिखा शख्स जेल अधिकारी, कर्मचारी और जल्लाद किसी को समझ नहीं आ रहा था कि अब क्या किया जाये। ऐसे में एक पुलिस वाले को फांसी कोठी के नीचे भेजा गया जहां ये दोनों लटक रहे थे और फिर पुलिस वाले ने रंगा के पैर पकड़ कर उसे ज़ोर से नीचे खींचा। जिसके बाद उसके प्राण निकल गए।