वंधामा …वाकई घर बस पाए
वंधामा गांदरबल का एक गांव नहीं, हर कश्मीरी पंडित की यादों में दर्ज एक चीख है। 25 जनवरी, 1998 की रात जब देश गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर झंडा फहराने की तैयारी कर रहा था, तभी सेना की वर्दी में आए आतंकियों ने 23 कश्मीरी पंडितों को घरों से निकालकर कतार में खड़ा किया और गोलियों से छलनी कर दिया। यह एक समुदाय को जड़ों से उखाड़ फेंकने की साजिश थी। इसके बाद पूरा समुदाय घाटी से पलायन को मजबूर हो गया। आज 27 साल बाद मैं उसी वंधामा ट्रांजिट कैंप में खड़ा हूं, जहां अब कुछ परिवार लौटे हैं, लेकिन सवाल अब भी वहीं है क्या यहां वाकई घर बस पाए हैं या सिर्फ मजबूरी की वापसी हुई है?
किले जैसी कॉलोनी पर दिलों में खौफ
वंधामा ट्रांजिट कैंप के रास्ते पर हथियारों से लैस सुरक्षा बल तैनात हैं। खीर भवानी मंदिर से लेकर कैंप और आस-पास के एरिया में पैरामिलिट्री फोर्स की अभेद किले जैसी सुरक्षा है। 191 फ्लैट्स की इस कॉलोनी में 91 कश्मीरी पंडित परिवार रहते हैं। वो भी इसलिए कि उन्हें सरकारी नौकरी मिली है। सुरक्षा के बावजूद यहां ‘घर जैसाÓ कुछ नहीं है। लोग यहां नौकरी करने आते हैं, जीने नहीं। जैसा कि संदीप (बदला नाम) कहते हैं- “जहां अपने मारे गए हों, वहां घर बसाना बहुत बड़ी बात होती है। कोशिश करते हैं, लेकिन हिम्मत नहीं होती।”
दर्द…अपने ही घर में टूरिस्ट
श्रीनगर के नौशारा गांव से विस्थापित आइटी प्रोफेशनल कंवल धर आज पत्नी के साथ खीर भवानी मंदिर दर्शन के लिए आए हैं। वो बताते हैं कि मेरा घर खंडहर में तब्दील हो चुका है। बगल में प्रसिद्ध विचारनाग मंदिर है, जहां कभी कश्मीरी ब्राह्मण पंचांग पर चर्चा करते थे। शंकराचार्य भी वहां आए थे। आज वहां वीरानी है। जब भी घर जाता हूं, तो लगता है जैसे अपने ही घर में टूरिस्ट बनकर आया हूं।” उनकी बात कहते-कहते आंखें डबडबा जाती हैं।
क्या दिलों की दीवारें भी गिर जाएंगी
वंधामा कैंप में रहने वाले एक बुजुर्ग कहते हैं कि हमारे लिए मंदिर केवल पूजा की जगह नहीं, बल्कि वहां हम फिर से सांस लेना सीख रहे हैं। यह धार्मिक पुनर्जागरण नहीं, एक सांस्कृतिक वापसी का उद्घोष है, कश्मीरी पंडितों के उनके घर वापसी के लिए शंखनाद है। सरकार ने मंदिरों की मरम्मत के लिए फंड दिया, योजनाएं चलाईं, लेकिन क्या ईंट-पत्थर के ठीक होने से दिलों की दीवारें भी गिर जाएंगी? कैंप में रहने वाले एक शिक्षक कहते हैं-मंदिरों की ईंटों से ज्यादा जरूरत सामाजिक स्वीकृति की है। रोजमर्रा की जिंदगी, पहचान का सम्मान और सरकारी तंत्र में भागीदारी…सब अधूरे हैं।
सिर्फ जमीन नहीं, 40 प्रतिशत भागीदारी चाहिए
श्रीनगर स्थित शिव मंदिर के पुजारी सुरेशानंद गिरी कहते हैं कि जब तक न्यायपालिका, प्रशासन और पुलिस में कश्मीरी पंडितों की ठोस भागीदारी नहीं होगी, पुनर्वास अधूरा रहेगा। हम मंदिर की जमीन भी फ्लैट्स के लिए देने को तैयार हैं, लेकिन सरकार को पहल करनी होगी। सिर्फ जमीन नहीं, 40 प्रतिशत भागीदारी चाहिए ताकि हमारी उपस्थिति दर्ज हो।
पड़ोसियों से नहीं, उस सोच का डर है
कश्मीरी पंडित मानते हैं कि उनके मुस्लिम पड़ोसी आज भी उन्हें सम्मान से बुलाते हैं, चाय पिलाते हैं, पुरानी बातें करते हैं। डर उनका नहीं, उस विचारधारा का है, जो एक पूरे समुदाय को डराकर भगाना चाहती है। जब तक वह सोच जिंदा है, तब तक हम लौटकर भी पूरी तरह लौट नहीं सकते।
सुरक्षा और भरोसे का इंतजार
कैंप में रहने वाले अमित सुमित रैना (बदला नाम) स्कूल में टीचर हैं। वह बताते हैं कि जब 2 साल के थे तब हमें कश्मीर में घरों को छोडऩा पड़ा, आज हम यहां नौकरी करने आए हैं लेकिन परिवार को साथ नहीं रख पा रहे हैं। अभी तक सुरक्षा और भरोसा सरकार और समाज की तरफ से कश्मीरी पंडितों को नहीं मिला है। लेकिन डर अभी जिंदा है
खीर भवानी मंदिर में चार बुजुर्ग एक बेंच पर बैठे बातें कर रहे थे। चेहरों पर शिकन, लेकिन आंखों में लौटने की चाहत। बातचीत शुरू की तो बताया कि वो जम्मू से बेटे-बेटियों से मिलने आए हैं। उनमें से दो के बेटे, एक की बेटी और एक की बहू कश्मीर में सरकार की पुनर्वास योजना के तहत नौकरी कर रहे हैं। माहौल सहज था, लेकिन जैसे ही मैंने नाम पूछा और तस्वीर लेने की इजाजत मांगी-चारों बुजुर्गों ने हाथ जोड़ लिए। उनके चेहरे का डर, शब्दों से ज्यादा बोल रहा था।
सूरज की किरण जरूरत दस्तक देगी
कश्मीरी पंडित संदीप कहते हैं कि अनुच्छेद 370 के हटने के बाद लौटने की राह थोड़ी साफ जरूर हुई है, लेकिन ये एक लंबा सफर है। अब पहले जैसी पत्थरबाजी नहीं होती, न धरनों की गूंज सुनाई देती है। इसी बदलाव में उम्मीद की लौ टिमटिमा रही है। वे कहते हैं कि जैसे सूरज की किरण खिड़की पर दस्त देती है, वैसे ही हमारी वापसी की रोशनी भी हमारे दरवाजे पर जरूर आएगी।
खीर भवानी मंदिर: हर ईंट में विरासत की सांस
कश्मीर घाटी में खीर भवानी मंदिर कश्मीरी पंडितों की कुलदेवी है। यह मंदिर देवी राग्न्या को समर्पित है। मंदिर महंत सुनील पुजारी बताते हैं कि आतंकवाद ने कश्मीरी पंडितों को घाटी से उजाड़ दिया, लेकिन खीर भवानी मंदिर से उनका नाता कभी नहीं टूटा। यहां की हर ईंट में उनकी विरासत सांस लेती है। यह मंदिर अब महज पूजा की जगह नहीं, बल्कि एक जिद है-अपने हिस्से की जमीन, अपने हिस्से की हवा और अपने हिस्से के हक की वापसी की जिद।
कट्टरपंथी मानसिकता सबसे बड़ी समस्या
श्रीनगर, गांदरबल, अवंतीपुरा, पुलवामा और कुपवाड़ा के साथ अन्य जगहों के कश्मीरी मुस्लिम पंडितों के कश्मीर वापसी के पक्षधर हैं। लेकिन, कुछ लोग आज भी दबी जुबान से विरोध करते हैं। यह विरोध सामाजिक मतभेद के लिए नहीं, बल्कि कट्टरपंथी मानसिकता के रूप में सामने आया। 1990 में जिस सुनियोजित तरीके से पंडितों को “रालिव, गैलिव या चालिव” (धर्म बदलो, भाग जाओ या मर जाओ) जैसे नारों के जरिए भगाया गया था, उस मानसिकता की जड़ें आज भी कई लोगों के भीतर जीवित हैं। उनकी वापसी से उन लोगों को अधिक डर है जिन्होंने पंडितों की जमीनों और संपत्तियों पर कब्जा कर लिया है। इस्लामी चरमपंथी सोच वाले वर्गों को यह भी डर है कि पंडितों की वापसी कश्मीर की “मुस्लिम बहुल पहचान” को कमजोर करेगी और भारत की राष्ट्रीयता की मौजूदगी को मजबूत करेगी। जिससे वह अपनी कट्टरपंथी सोच को विस्तार नहीं दे पाएंगे। इसे वे एक धार्मिक अतिक्रमण की तरह देखते हैं। हालांकि घाटी के अधितकर मुस्लिम उनकी वापसी के समर्थक हैं, लेकिन कट्टरपंथी संगठनों, विचारधारा वाले लोगों के डर से खुलकर समर्थन नहीं कर पाते।