इस आदेश को चुनौती देने वाली याचिकाएं अदालत में दायर की गई थीं, जिनमें इस निर्णय को बच्चों के शैक्षिक अधिकारों के उल्लंघन के रूप में पेश किया गया। न्यायमूर्ति पंकज भाटिया की एकल पीठ ने इस मामले की सुनवाई की, जिसमें दोनों पक्षों राज्य सरकार और याचिकाकर्ताओं की ओर से विस्तृत बहस हुई।
याचिकाओं की पृष्ठभूमि
इस मामले में पहली याचिका सीतापुर जनपद के 51 विद्यार्थियों की ओर से दाखिल की गई थी, जो संबंधित विद्यालयों में अध्ययनरत हैं। इसके अलावा एक अन्य समान प्रकृति की याचिका भी अदालत में लंबित थी। इन याचिकाओं में आरोप लगाया गया कि 16 जून 2025 को जारी बेसिक शिक्षा विभाग का आदेश न केवल “मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009” (आरटीई अधिनियम) का उल्लंघन करता है, बल्कि इससे छोटे बच्चों को शिक्षा प्राप्त करने में गंभीर कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा। याचिकाकर्ताओं के अधिवक्ता डॉ. एल.पी. मिश्र और गौरव मेहरोत्रा ने विशेष रूप से यह तर्क प्रस्तुत किया कि 6 से 14 वर्ष की आयु वर्ग के बच्चों को उनके घर के समीप प्राथमिक शिक्षा प्राप्त करने का संवैधानिक अधिकार है, और सरकार द्वारा प्रस्तावित विलय योजना से यह अधिकार बाधित होगा। उनका कहना था कि कई छोटे गांवों में स्थित स्कूलों को दूरस्थ क्षेत्रों के कंपोजिट या उच्च प्राथमिक विद्यालयों में विलय करने से छात्रों को लंबी दूरी तय करनी पड़ेगी, जिससे उनके शिक्षा में नियमित उपस्थिति और सुरक्षा दोनों पर प्रतिकूल असर पड़ सकता है।
राज्य सरकार की दलील: “बच्चों के हित में है विलय”
वहीं, राज्य सरकार की ओर से अपर महाधिवक्ता अनुज कुदेसिया और मुख्य स्थायी अधिवक्ता शैलेंद्र कुमार सिंह ने अदालत को बताया कि यह निर्णय बच्चों के दीर्घकालिक हितों और शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार के उद्देश्य से लिया गया है। उन्होंने कहा कि प्रदेश में ऐसे 18 प्राथमिक विद्यालय चिह्नित किए गए हैं, जहां एक भी छात्र नामांकित नहीं है, जबकि अन्य अनेक स्कूलों में विद्यार्थियों की संख्या अत्यंत कम है। राज्य सरकार के अनुसार, इन स्कूलों का पास के उच्च प्राथमिक या कंपोजिट विद्यालयों में विलय करके न केवल शिक्षकों, बल्कि बुनियादी संसाधनों जैसे स्मार्ट क्लास, पुस्तकालय, शुद्ध पेयजल और शौचालय जैसी सुविधाओं—का बेहतर उपयोग सुनिश्चित किया जा सकता है। सरकार ने यह भी कहा कि इससे शिक्षकों का बोझ संतुलित होगा और छात्रों को बेहतर शिक्षण वातावरण मिलेगा।
शिक्षा बनाम सुविधा: मुख्य प्रश्न
सुनवाई के दौरान यह मुद्दा भी सामने आया कि शिक्षा केवल भवन और शिक्षक तक सीमित नहीं है, बल्कि यह बच्चों की पहुंच, उनकी आयु और सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि को ध्यान में रखते हुए दी जानी चाहिए। अधिवक्ताओं ने उदाहरण स्वरूप यह बताया कि एक छह वर्षीय बच्चा, जो पहले 500 मीटर दूर के स्कूल में पढ़ता था, अब उसे 2-3 किलोमीटर दूर स्थित स्कूल में भेजना होगा, जो उसके लिए न केवल असुविधाजनक है बल्कि असुरक्षित भी हो सकता है। इसके जवाब में राज्य सरकार ने भरोसा दिलाया कि बच्चों की सुरक्षा और उनकी परिवहन व्यवस्था का समुचित प्रबंध किया जाएगा। साथ ही, यह भी कहा गया कि एक भी बच्चा शिक्षा से वंचित न हो, इसके लिए सभी आवश्यक कदम उठाए जाएंगे।
न्यायालय का रुख
न्यायमूर्ति पंकज भाटिया ने दोनों पक्षों की दलीलों को गंभीरता से सुना और इस संवेदनशील मामले में फैसला सुरक्षित कर लिया। अदालत का यह फैसला अब यह तय करेगा कि प्रदेश सरकार द्वारा लिए गए स्कूलों के विलय का निर्णय बच्चों के मौलिक अधिकारों के अनुरूप है या नहीं। इस मामले में एक ओर जहां राज्य सरकार शिक्षा व्यवस्था को अधिक प्रभावी और समावेशी बनाने की दिशा में कदम उठा रही है, वहीं दूसरी ओर, याचिकाकर्ता इसे गरीब और ग्रामीण बच्चों के शिक्षा अधिकारों पर सीधा आघात मान रहे हैं। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि अदालत किस तर्क को तरजीह देती है।
शिक्षाविद् इस फैसले को शिक्षा व्यवस्था में एक निर्णायक मोड़ मान रहे हैं। रिटायर्ड प्रोफेसर डॉ. एम.के. पाठक का कहना है कि “यदि सरकार संसाधनों का बेहतर प्रबंधन करना चाहती है तो यह स्वागत योग्य है, लेकिन बच्चों की सुरक्षा और पहुंच सबसे पहली प्राथमिकता होनी चाहिए।” इसी प्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता और बाल शिक्षा अधिकार विशेषज्ञ रेखा श्रीवास्तव कहती हैं कि “विलय तभी सफल हो सकता है, जब सरकार यह सुनिश्चित करे कि कोई भी बच्चा स्कूल से वंचित न हो और उसकी पढ़ाई बाधित न हो।”