प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह की जोड़ी, जिसे ‘टीम गुजरात’ के नाम से भी जाना जाता है, अब उत्तर प्रदेश की राजनीति में अपना सीधा प्रभाव दिखा रही है। हाल में डीजीपी प्रशांत कुमार और मुख्य सचिव मनोज कुमार सिंह को सेवा विस्तार न देना उसी कड़ी का हिस्सा माना जा रहा है। यह संदेश स्पष्ट है: यूपी अब केवल योगी की प्रयोगशाला नहीं है।
ब्यूरोक्रेसी में योगी की पसंद को किया गया नजरअंदाज
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने जिन अधिकारियों पर भरोसा किया, उन्हें एक के बाद एक हटाया जा रहा है। पहले डीजीपी प्रशांत कुमार और फिर मुख्य सचिव मनोज कुमार सिंह को हटाया गया। उनके स्थान पर एसपी गोयल को मुख्य सचिव बनाकर संदेश दिया गया कि अब ब्यूरोक्रेसी के चयन में योगी की पसंद से ज्यादा दिल्ली की रणनीति चलेगी।
क्या भाजपा प्रदेश अध्यक्ष का चयन भी प्रभावित होगा
ब्यूरोक्रेसी में हस्तक्षेप के बाद अब निगाहें भाजपा प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी पर टिकी हैं। जानकारों का मानना है कि केंद्रीय नेतृत्व अब ऐसा अध्यक्ष लाना चाहता है जो योगी के प्रभाव क्षेत्र से बाहर हो। कारण स्पष्ट है। लोकसभा चुनाव 2024 में उत्तर प्रदेश से भाजपा को करारी शिकस्त मिली और इसका ठीकरा टिकट वितरण से लेकर संगठनात्मक फैसलों तक पर फोड़ा जा रहा है।
संघ बनाम टीम गुजरात
भाजपा का परंपरागत रणनीतिक सहयोगी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ,मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की हिंदुत्व छवि का पक्षधर रहा है। लेकिन टीम गुजरात, खासतौर पर अमित शाह, योगी के राजनीतिक कद से असहज रहे हैं। वरिष्ठ पत्रकार निशांत घनश्याम चौरसिया के अनुसार, “टीम गुजरात, योगी आदित्यनाथ से नहीं बल्कि उनकी आभा से ज्यादा डरती है।”
टिकट वितरण से उपजा असंतोष
लोकसभा चुनाव में टिकट वितरण में न तो राज्य सरकार की एजेंसियों की रिपोर्ट को तरजीह दी गई, न ही संघ की सलाह को। नतीजा यह रहा कि अधिकतर टिकट पुराने सांसदों को दिए गए, जिससे जमीनी कार्यकर्ताओं में नाराजगी बढ़ी।
राजभवन का बदला रुख
राज्यपाल आनंदीबेन पटेल की भूमिका भी इस पूरे परिदृश्य में उल्लेखनीय रही है। उन्होंने विश्वविद्यालयों में नियुक्तियों में राज्य सरकार के आग्रह को महत्व नहीं दिया। कई ऐसे कुलपति नियुक्त किए गए जिनकी पृष्ठभूमि संदिग्ध रही है।
जातीय समीकरण की पेचीदगियां
राज्य में ब्राह्मण, राजपूत और वैश्य समाज के संतुलन को लेकर भी चर्चा है। मुख्य सचिव और डीजीपी के तौर पर वैश्य समाज के अधिकारियों को लाकर एक वर्ग विशेष को साधने की कोशिश की गई है। अब प्रदेश अध्यक्ष के लिए जातीय समीकरण सबसे बड़ा फैक्टर बन चुका है।
विपक्ष की रणनीति भी बढ़ा रही चिंता
समाजवादी पार्टी ने अति पिछड़ा कार्ड खेलते हुए श्याम लाल पाल को प्रदेश अध्यक्ष बनाया है। इसके साथ ही उनके पास रामजी लाल सुमन और इंद्रजीत सरोज जैसे प्रभावशाली दलित नेता हैं जो दलित वोटों को सपा की ओर आकर्षित कर सकते हैं। यदि भाजपा ब्राह्मण या राजपूत को प्रदेश अध्यक्ष बनाती है तो यह दांव उल्टा पड़ सकता है।
संघ की भूमिका बनी निर्णायक
प्रदेश अध्यक्ष के चयन में संघ और उसके अनुसांगिक संगठनों की भूमिका निर्णायक होती है। हालांकि ब्यूरोक्रेसी में उनका कोई हस्तक्षेप नहीं होता, लेकिन संगठनात्मक निर्णयों में उनकी सहमति अनिवार्य मानी जाती है। ऐसे में यदि किसी एकतरफा ‘भक्त’ को प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया तो 2027 के विधानसभा चुनाव में भाजपा के लिए हैट्रिक लगाना मुश्किल हो जाएगा।