पूर्णिमा को काला दिन
विक्रम संवत 1347, सन 1291 में दिल्ली के सुल्तान जलालुद्दीन खिलजी ने पाली की समृद्धि देखकर आक्रमण किया। उस समय पालीवाल ब्राह्मण परंपरा के अनुसार लाखोटिया और लोहरी तालाब पर श्रावणी उपाकर्म और तर्पण कर रहे थे। आक्रमण के दौरान हजारों ब्राह्मण वीरगति को प्राप्त हुए। तालाबों का पानी गो- वंश की हत्या से अपवित्र किया गया। राठौड़ शासक राव सीहा के पुत्र आस्थान भी इन्हीं की रक्षा करते हुए शहीद हुए।
बलिदान की अमिट याद
हत्याकांड के बाद 9 मण जनेऊ और 84 मण हाथीदांत की चूडिय़ां धौला चौतरा में दफन की गईं। यह स्थल आज भी घटना का साक्षी है। पालीवाल ब्राह्मणों ने उसी दिन पाली का सामूहिक त्याग कर दिया। बड़ी संख्या में लोग जैसलमेर रियासत में आकर बस गए और कुलधरा-खाभा सहित 84 गांव बसाए।
एक्सपर्ट व्यू : आज भी निभा रहे परंपरा
राजस्थान पालीवाल समाज के उपाध्यक्ष ऋषिदत्त पालीवाल बताते हैं कि हर वर्ष श्रावणी पूर्णिमा पर पालीवाल समाज रक्षा बंधन नहीं मनाता, बल्कि तालाबों पर तर्पण कर पूर्वजों को स्मरण करता है। पाली में करोड़ों रुपए की लागत से विकसित पालीवाल धाम पर देश भर से समाजजन आकर श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। हर गांव में तालाबों पर तर्पण कार्यक्रम आयोजित होते हैं, जो 734 साल पुराने बलिदान की गाथा को आज भी जीवंत रखते हैं।