यह विद्राह चिपको आंदोलन से भी बड़ा माना जाता है, हालांकि इसे उतनी ख्याति नहीं मिल पाई। बस्तर की दोरली की उपभाषा में ‘कोई’ का अर्थ होता है वनों और पहाड़ों में रहने वाली
आदिवासी प्रजा। पुराने समय से वन बस्तर रियासत का महत्वपूर्ण संसाधन रहा है।
अंग्रेजों की शोषण व गलत वन नीति से आदिवासी काफी असन्तुष्ट थे। फोतकेल के जमींदार नागुल दोरला ने भोपालपट्टन के जमींदार राम भोई और भेजी के जमींदार जुग्गाराजू को अपने पक्ष में कर अंग्रेजों के साल वृक्षों के काटे जाने के खिलाफ 1859 में विद्रोह कर दिया। विद्रोही जमींदारों और आदिवासी जनता ने सर्वसम्मति से निर्णय लिया कि अब बस्तर के एक भी साल वृक्ष को काटने नहीं दिया जाएगा, और अपने इस निर्णय की सूचना उन्होंने अंग्रेजों एवं हैदराबाद के ब्रिटिश ठेकेदारों को दी।
World Environment Day 2025: ‘एक साल वृक्ष के पीछे एक व्यक्ति का सिर’
ब्रिटिश सरकार ने नागुल दोरला और उनके समर्थकों के निर्णय को अपनी प्रभुसत्ता को चुनौती मानकर वृक्षों की कटाई करने वाले मजदूरों की रक्षा करने के लिए बन्दूकधारी सिपाही भेजे। दक्षिण बस्तर के आदिवासियों को जब यह खबर लगी, तो उन्होंने जलती हुई मशालों को लेकर अंग्रेजों के लकड़ी के टालों को जला दिया और आरा चलाने वालों का सिर काट डाला। आन्दोलनकारियों ने ‘एक साल वृक्ष के पीछे एक व्यक्ति का सिर’ का नारा दिया। इस जनआन्दोलन से हैदराबाद का निजाम और अंग्रेज घबरा उठे। आखिरकार निजाम और अंग्रेजों ने नागुल दोरला और उसके साथियों के साथ समझौता किया। सिरोंचा के डिप्टी कमिश्नर कैप्टन सी. ग्लासफोर्ड ने विद्रोह की भयावहता को देखते हुए अपनी हार मान ली और बस्तर में लकड़ी ठेकेदारों की प्रथा को समाप्त कर दिया।
पानी जहाज बनाने साल के वृक्ष कटवा रहे थे
1859 में अंग्रेजों ने देश में बड़े पैमाने पर पानी के जहाज बनाने का काम शुरू किया। अंग्रेजों को जानकारी मिली कि इसके लिए सबसे अच्छी लकड़ी बस्तर में मिलेगी तो उन्होंने हैदराबाद के निजाम को कहा कि वेे लकडिय़ों का प्रबंध करें। इसके बाद आंध्रप्रदेश के बड़े लकड़ी ठेकेदार जब यहां पहुंचे तो उन्हें आदिवासियों के आक्रोश का सामना करना पड़ा।