किन राज्यों में सबसे ज्यादा खतरा?
बौनेपन के ये शुरुआती आंकड़े आंगनवाड़ी में नामित बच्चों पर करवाए गए सर्वे से हैं। सर्वाधिक आंकड़ा उत्तर प्रदेश से सामने आया है। वहीं, राजस्थान, पंजाब, तेलंगाना के अलावा उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश की स्थिति भी ज्यादा अच्छी नहीं है। सर्वे 13 राज्यों और 5 केंद्र शासित प्रदेशों के कुल 63 जिलों में करवाया गया, जिनमें 50 फीसदी बच्चों की लंबाई औसत से कम निकली।
बौनेपन की जड़: सिर्फ कुपोषण नहीं, प्रदूषण भी अपराधी
वर्ष 2016 में भी राष्ट्रीय परिवार सर्वेक्षण की रिपोर्ट ने बच्चों में बढ़ते बौनेपन की समस्याओं से केंद्र व राज्य सरकारों को अवगत कराया था, स्थिति इस कदर बिगड़ेगी, किसी को उम्मीद नहीं थी। बीते 9 वर्षों में बौनेपन की समस्या ने रफ्तार तेजी से पकड़ ली है। इस बार भी बौनेपन की मुख्य जड़ कुपोषण ही बताया गया है। कुपोषण और बौनापन क्यों बढ़ रहा है? इस थ्योरी को समझना प्रत्येक अभिभावक के लिए अब जरूरी हो गया है।
मानसिक और बौद्धिक विकास भी प्रभावित होता
दरअसल, कुपोषण मात्र पोषित भोजन के न मिलने की वजह से नहीं है। साफ वातावरण, स्वच्छ हवा, प्रदूषण रहित माहौल का न होना मुख्य कारण हैं। बाल्यावस्था में जो बच्चा प्रदूषण की चपेट में आता है, वह कुपोषित होने के अलावा टीबी, निमोनिया, फेफड़े संबंधित रोग, सीओपीडी जैसी बीमारियों से घिर सकता है। चिकित्सा विंग ‘रेस्परेटरी मेडिसिन’ और ‘जच्चा-बच्चा’ विभाग अभिभावकों को सलाह देते हैं कि प्रदूषण युक्त जगहों पर बच्चों का जन्म नहीं होना चाहिए। क्योंकि शिशुओं का शुरुआती जीवन साफ-सुथरे वातावरण में गुजरना अति महत्त्वपूर्ण होता है।
गर्भ में कुपोषित बच्चे का जीवन ज्यादा लंबा नहीं होता
बच्चों का शारीरिक विकास नहीं होने से उनमें बौनेपन के अलावा बौद्धिक स्तर भी औसत ही रहता है। चिकित्सीय रिपोर्ट यह भी मानती है कि गर्भ में कुपोषित बच्चे का जीवन ज्यादा लंबा नहीं होता। वर्ष 2018 में देश में 7.20 लाख से ज्यादा बच्चे 1 साल भी नहीं जी पाए, जिनमें 3.77 लाख लड़के और 3.42 लाख से ज्यादा लड़कियां थीं। ‘यूएन इंटर-एजेंसी ग्रुप फॉर चाइल्ड मोर्टेलिटी एस्टीमेशन’ की रिपोर्ट पर अगर गौर करें, तो शिशु मृत्युदर में भारत नेपाल-बांग्लादेश से भी पिछड़ा हुआ है। भारत में औसतन प्रतिदिन 67,385 बच्चे जन्म लेते हैं, जो दुनिया में जन्म लेने वाले बच्चों का पांचवा हिस्सा है। वहीं, हर मिनट में एक नवजात शिशु की मौत भी होती है। इसके अलावा भारतीय चिकित्सा व्यवस्था डॉक्टरों की घोर कमी से भी जूझ रही है। भारत में 1456 लोगों पर मात्र एक डॉक्टर है।