scriptछतरपुर जिला अस्पताल में अधूरी पड़ी पीडियाट्रिक यूनिट, एक छत के नीचे इलाज का सपना आज भी अधूरा | Pediatric unit lying incomplete in Chhatarpur district hospital, the dream of treatment under one roof is still unfulfilled | Patrika News
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छतरपुर जिला अस्पताल में अधूरी पड़ी पीडियाट्रिक यूनिट, एक छत के नीचे इलाज का सपना आज भी अधूरा

जिला अस्पताल की पांचवीं मंजिल पर तैयार हो रही पीडियाट्रिक यूनिट की लेटलतीफी ने न केवल स्थानीय मरीजों की तकलीफें बढ़ा दी हैं, बल्कि आसपास के तीन जिलों के सैकड़ों बच्चों की सेहत भी इस बदइंतजामी की भेंट चढ़ रही है।

छतरपुरJun 10, 2025 / 10:48 am

Dharmendra Singh

pediaytic ward

अधूरा पड़ा यूनिट का निर्माण

बच्चों के लिए एक समर्पित, सुव्यवस्थित और संपूर्ण स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध कराने का सपना वर्षों से जिले में पला-बढ़ा, लेकिन जमीनी सच्चाई यह है कि आज भी वह सपना अधूरा है। जिला अस्पताल की पांचवीं मंजिल पर तैयार हो रही पीडियाट्रिक यूनिट की लेटलतीफी ने न केवल स्थानीय मरीजों की तकलीफें बढ़ा दी हैं, बल्कि आसपास के तीन जिलों के सैकड़ों बच्चों की सेहत भी इस बदइंतजामी की भेंट चढ़ रही है।

बिखरा हुआ है बच्चों का इलाज, स्टाफ भी परेशान

फिलहाल छतरपुर जिला अस्पताल में बच्चों का इलाज कई हिस्सों में बिखरा हुआ है। पहली मंज़िल पर एसएनसीयू (स्पेशल न्यूबोर्न केयर यूनिट) है, तो दूसरी मंज़िल पर बच्चा वार्ड। यही नहीं, पीडियाट्रिक वार्ड दो भागों में विभाजित है, जिससे चिकित्सकीय समन्वय गड़बड़ा जाता है। नर्सिंग स्टाफ और डॉक्टरों को कभी-कभी डबल ड्यूटी करनी पड़ती है, जिससे काम का बोझ बढ़ जाता है और मरीजों को समय पर सेवा नहीं मिल पाती।करोड़ों की लागत से बन रही यूनिट, पर निर्माण अधूरास्वास्थ्य विभाग पांचवीं मंजिल पर 1.45 करोड़ रुपए की लागत से नई पीडियाट्रिक यूनिट का निर्माण करवा रहा है, जिसमें 20 बेड का नया एसएनसीयू भी प्रस्तावित है। हालांकि, निर्माण कार्य धीमी गति से चल रहा है और समय-सीमा से काफी पीछे है। अधूरी इमारत, बिखरा सामान और अधटूटे ढांचे यह बयां करते हैं कि बच्चों के इलाज को प्रशासन ने प्राथमिकता नहीं दी।

जगह बदली, सुविधा जस की तस

नया एसएनसीयू तो तैयार होगा, लेकिन सवाल यह उठता है कि केवल जगह बदलने से क्या फर्क पड़ेगा जब सुविधाएं वहीं की वहीं रहेंगी? मदर वार्ड की क्षमता जहां 25 से घटाकर 10 कर दी गई है, वहीं नवजातों के इलाज के लिए बेड की संख्या जस की तस रहने से एक बड़ी चिंता खड़ी हो गई है। यह निर्णय समझ से परे है, क्योंकि प्रसूता महिलाओं और नवजातों के लिए पर्याप्त जगह और संसाधन न होना सीधे तौर पर उनकी सेहत पर असर डाल सकता है।

300 बेड की मंजूरी, लेकिन इलाज 600 से ज़्यादा मरीजों का

जिला अस्पताल में न केवल छतरपुर, बल्कि उत्तर प्रदेश के महोबा और बांदा, मध्य प्रदेश के पन्ना और टीकमगढ़ जिलों से भी मरीज आते हैं। ऐसे में 300 बेड की स्वीकृत क्षमता वाले इस अस्पताल में रोज़ाना 600 से अधिक मरीज भर्ती रहते हैं। इसका सीधा असर दवाओं, डॉक्टरों, नर्सिंग स्टाफ और अन्य सुविधाओं की कमी के रूप में सामने आता है। पीडियाट्रिक यूनिट के मामले में यह स्थिति और गंभीर हो जाती है क्योंकि बच्चों के इलाज के लिए विशेष देखभाल और त्वरित सेवाएं चाहिए होती हैं।

ठेकेदार को दी गई चेतावनी, लेकिन फिर भी काम अधूरा

स्वास्थ्य विभाग के सब इंजीनियर अंशुल खरे का कहना है, ठेकेदार को पहले भी नोटिस दिया गया है और काम समय पर पूरा करने के निर्देश दिए गए थे। अब दोबारा रिमाइंडर भेजा जा रहा है। मगर सवाल यह है कि क्या रिमाइंडर ही समाधान है? क्या बच्चों की जान को खतरे में डालकर भी केवल कागज़ी कार्रवाइयों से काम चलाया जाएगा?

एकीकृत व्यवस्था से कम हो सकता है बोझ, पर कब?

यदि यह यूनिट पूरी हो जाती है, तो स्टाफ की आवश्यकता कम होगी, सुविधाएं एक जगह मिलेंगी और मरीजों को बार-बार वार्ड बदलने की दिक्कत नहीं होगी। लेकिन जब तक निर्माण कार्य पूरा नहीं होता, तब तक यह सिर्फ एक संभावना है, न कि कोई सुविधा।

पत्रिका व्यू

बच्चों के इलाज को लेकर की गई यह पहल सराहनीय है, लेकिन अधूरे निर्माण और प्रशासनिक लापरवाही ने इस प्रयास की दिशा भटका दी है। स्वास्थ्य सेवाओं को केवल कागज़ी आंकड़ों से नहीं, जमीनी कार्यों से सुधारा जा सकता है। जब तक यह यूनिट पूरी नहीं होती, तब तक तीन जिलों के बच्चे यूं ही बदइंतज़ामी की मार झेलते रहेंगे। प्रशासन को अब चेत जाना चाहिए, क्योंकि हर दिन की देरी, किसी मासूम की जिंदगी पर भारी पड़ सकती है।

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