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बीकानेर

…जब ताले में कैद हो गया था लोकतंत्र, मिली थी 1 घंटे की रिहाई

25 जून 1975 को देश पर थोपा गया आपातकाल भारतीय लोकतंत्र के इतिहास का सबसे काला अध्याय बन गया। इस निर्णय से न केवल विपक्षी दलों के नेताओं और कार्यकर्ताओं को निशाना बनाया गया, बल्कि आम नागरिक भी इसकी जद में आ गए। गिरफ्तारी, नजरबंदी, यातनाएं और संवादहीनता…इन 19 महीनों ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया। बीकानेर भी इससे अछूता नहीं रहा। जो लोग उस समय जेल में बंद रहे, वे आज भी उस दौर को याद कर सिहर उठते हैं। लोकतंत्र की कीमत क्या होती है, यह वे भुक्तभोगी आज भी गवाही देते हैं।

बीकानेरJun 25, 2025 / 09:24 pm

Vimal

बीकानेर. 25 जून 1975 को देश पर थोपा गया आपातकाल भारतीय लोकतंत्र के इतिहास का सबसे काला अध्याय बन गया। इस निर्णय से न केवल विपक्षी दलों के नेताओं और कार्यकर्ताओं को निशाना बनाया गया, बल्कि आम नागरिक भी इसकी जद में आ गए। गिरफ्तारी, नजरबंदी, यातनाएं और संवादहीनता…इन 19 महीनों ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया। बीकानेर भी इससे अछूता नहीं रहा। यहां भी राजनैतिक विरोध के स्वर उठे और उन्हें दबाने के लिए सत्ता ने हर मुमकिन प्रयास किए। 50 साल बाद भी आपातकाल के उन 19 महीनों की पीड़ा, दर्द और अधिकारों के हनन की कहानियां मन-मस्तिष्क से नहीं मिट सकीं। जो लोग उस समय जेल में बंद रहे, वे आज भी उस दौर को याद कर सिहर उठते हैं। लोकतंत्र की कीमत क्या होती है, यह वे भुक्तभोगी आज भी गवाही देते हैं।

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अब भी ताजा हैं वो जख्म

50 साल बाद भी आपातकाल के उन 19 महीनों की पीड़ा, दर्द और अधिकारों के हनन की कहानियां मन-मस्तिष्क से नहीं मिट सकीं। जो लोग उस समय जेल में बंद रहे, वे आज भी उस दौर को याद कर सिहर उठते हैं। उस दौर की कई अमिट यादें आज भी उनके जेहन में जिंदा हैं। लोकतंत्र की कीमत क्या होती है, यह वे भुक्तभोगी आज भी गवाही देते हैं।
पिता की अंतिम यात्रा में शामिल नहीं हो सका: पुरुषोत्तम दयाल हर्ष

आपातकाल की यादें भावनात्मक ज़ख्म भी छोड़ गईं। मुझे 26 जून को दुकान जाते वक्त पुलिस ने गिरफ्तार किया। 19 जनवरी 1976 को पिता का निधन हो गया। परिवार ने मुझे अंतिम संस्कार में शामिल होने देने का आग्रह किया, लेकिन जेल प्रशासन नहीं माना। विधायक डॉ. गोपाल जोशी के हस्तक्षेप से एक घंटे की अनुमति मिली। पुलिस की निगरानी में श्मशान घाट गया, फिर वापस जेल। अस्थि विसर्जन के लिए पैरोल मिला, लेकिन शर्त थी कि हर दिन देहरादून में मजिस्ट्रेट के सामने हाजिरी देनी होगी। पिता की सेवा और विदाई में शामिल न हो पाने का मलाल है।
जेल में भी लोकतंत्र के लिए आवाज उठाई: विशन मतवाला

आपातकाल के दौरान 18 जुलाई 1975 से जनवरी 1977 तक जेल में बंद रहा। मुझे रेलवे स्टेशन रोड से गिरफ्तार किया गया। जेल में पहले से अनेक नेता और कार्यकर्ता बंद थे। अंदर ही अंदर हमारा आंदोलन जारी रहा। हमें मिलने की इजाजत नहीं थी। वह काफी बाद में मिली। उस दौर में शहर में नुक्कड़ सभाएं, जोशीले गीत और कविताएं लोगों में जोश और जागरूकता भर रहे थे। शासन और जेल प्रशासन की ओर से की गई ज्यादतियां आज भी मन में घर किए हुए हैं। लोकतंत्र को बचाने की जद्दोजहद और सत्ता की बर्बरता का वह दौर भुलाए नहीं भूलता।
घर से निकलते ही पकड़ लिया गया: नारायण दास रंगा

वह 26 जून 1975 की सुबह थी। मेरे घर को पुलिस ने चारों तरफ से घेर लिया। जैसे ही बाहर निकला, पुलिस ने गिरफ्तार कर कोटगेट के वाचनालय और फिर केन्द्रीय कारागार में डाल दिया। जेल में हमसे ना तो बात करने दी जाती थी, ना मिलने दिया जाता। हमने आंदोलन किया। एक साल तक परिजनों से कोई संपर्क नहीं हुआ। अंतत: जब अनुमति मिली, तो पुलिस की निगरानी में बात करनी पड़ती थी। 19 महीने 18 दिन तक जेल में रहा। इस दौरान मेरा गोपालन और समाचार पत्र प्रकाशन का कार्य पूरी तरह बंद हो गया।
न खाना, न सुनवाई… और फिर दो हफ्ते की भूख हड़ताल

26 जून 1975 की सुबह, पब्लिक पार्क परिसर से वरिष्ठ अधिवक्ता और पूर्व विधायक रामकृष्ण दास गुप्ता को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया। गुप्ता बताते हैं, ’’मीसा बंदियों की कोई सुनवाई नहीं होती थी। ना अदालत में, ना प्रशासन में। जेल में न भोजन की गुणवत्ता, न रहने या बैठने की समुचित व्यवस्था। इन हालातों के विरोध में रामकृष्ण दास गुप्ता, श्योपत सिंह और सोहनलाल मोदी ने भूख हड़ताल शुरू की, जो पूरे दो सप्ताह तक चली। इसके बाद जयपुर से आईजी बीकानेर पहुंचे और बातचीत के बाद बेहतर भोजन, चिकित्सा और आधारभूत सुविधाएं देने का आश्वासन दिया। तब हड़ताल समाप्त हुई। गुप्ता कहते हैं, ’’वो समय मेरे जीवन का सबसे बुरा दौर था। बंदियों को किसी से मिलने तक की इजाजत नहीं थी। पूरी तरह से संवादहीनता, दमन और डर का माहौल था।’’

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