सागर सबसे पहले उतरा… फिर गणेश… फिर अनिल… और फिर…
ओमप्रकाश ने बताया कि सबसे पहले सागर सेप्टिक टैंक में उतरा। हम बाहर से देख रहे थे। कुछ पल बीते… कोई आवाज नहीं आई। फिर गणेश नीचे गया, फिर अनिल। तीनों अंदर गए, लेकिन कोई लौटकर बाहर नहीं आया। जब मैं भी उतरने लगा, तो मुझे सांस लेने में तकलीफ हुई। जैसे अंदर कुछ था जो जिंदगी खींच रहा था। मैंने मदद की गुहार लगाई। कुछ साथी दौड़े और मुझे खींचकर बाहर निकाला। जब आंख खुली, तो अस्पताल में था… और मेरे तीनों दोस्त इस दुनिया से जा चुके थे। तीन मज़दूर, तीन घर, और अब…तीन अर्थियां
मारे गए श्रमिकों में अनिल, गणेश और सागरराज शामिल थे। अनिल और गणेश रिश्ते में साला-बहनोई थे। रोज साथ काम पर जाते, चाय पीते, परिवारों की बातें करते। पर अब सिर्फ उनकी तस्वीरें रह गई हैं। एक साथ गए चार दोस्त। एक लौटा, तीन अब कभी नहीं लौटेंगे।
घर मत बताना कि अनिल चला गया…
जब अनिल का शव अस्पताल पहुंचा, उसका बड़ा भाई मुकेश ज़मीन पर बैठ गया। आंखें जैसे फटी रह गई थीं। उसने रुंधे गले से कहा कि अभी मत बताना घर पर… कि अनिल अब नहीं रहा। बस इतना कह देना कि गर्मी से तबीयत बिगड़ गई है। मां सह नहीं पाएगी…। इतना कहकर वो दीवार से टिक कर बैठ गया। रोते हुए खुद को संभाल रहा था, जैसे कोई उम्मीद बाकी हो, लेकिन वह भी नहीं थी।
इस बार सिर्फ मजदूर नहीं मरे… भरोसा मरा है
हरबार हम ऐसे हादसों की खबरें पढ़ते हैं, दुख जताते हैं और भूल जाते हैं। लेकिन इस बार बात कुछ और है। इस बार सिर्फ मजदूर नहीं मरे। एक मां का बेटा गया, एक बच्चे का पिता गया, एक पत्नी का सुहाग गया। ओमप्रकाश जिंदा है, लेकिन उसकी आंखों में अब वो हंसी नहीं है, जो सुबह थी। वो पूछता है, ’’भगवान ने मुझे बचाया… पर मेरे दोस्तों को क्यों नहीं?’’ इस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं है। हादसे के बाद चहुंओर शोक की लहर है। सवाल और भी हैं। क्या इनकी जान की कोई कीमत नहीं थी?’’ बिना किसी सुरक्षा उपकरण के श्रमिकों को गैस भरे टैंक में उतार देना… यह लापरवाही नहीं, सीधी हत्या जैसी लगती है।