1837 में ब्रिटिश शासनकाल में स्थापित यह कॉलेज, प्रथम स्वतंत्रता संग्राम से लेकर 1965 के हिंदी आंदोलन तक, देशभक्ति के कई ऐतिहासिक पलों का केंद्र रहा। यहां के छात्रों के साथ-साथ शिक्षकों ने भी अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ मोर्चा संभाला।
1857 में बना क्रांतिकारियों का अड्डा
1857 की क्रांति में रुहेलखंड की कमान नवाब खान बहादुर खान के हाथ में थी। बरेली कॉलेज के शिक्षक मौलवी महमूद हसन और फारसी शिक्षक कुतुब शाह समेत कई छात्र आंदोलन में शामिल हुए। कॉलेज में गुप्त बैठकें होती थीं और यहीं से अंग्रेजी हुकूमत को चुनौती देने की रणनीतियां बनती थीं। इतना ही नहीं क्रांतिकारियों ने कॉलेज के प्रिंसिपल डॉ. कारलोस बक की हत्या कर अंग्रेजों को सीधा संदेश दिया कि बरेली विद्रोह की ज्वाला में जल रहा है। कुतुब शाह नवाब के आदेशों और क्रांतिकारी घोषणाओं को छापकर जनता में बांटते थे, जिससे अंग्रेजी शासन की नींद उड़ गई। बाद में उन्हें पकड़कर फांसी की सजा सुनाई गई, जो काला पानी में बदल दी गई। अंडमान में ही उनकी मौत हुई।
शहीदों की लंबी सूची
बरेली कॉलेज का एक छात्र जैमीग्रीन, रामपुर के निवासी, बेगम हजरत महल के मुख्य अभियंता बने और सिकंदर बाग के युद्ध में लड़े। उन्नाव में जासूसी के आरोप में गिरफ्तार होकर उन्होंने फांसी का सामना किया। आजादी की राह पर यहां के कई छात्र हमेशा सक्रिय रहे, महात्मा गांधी के भारत छोड़ो आंदोलन से लेकर सुभाष चंद्र बोस की आजाद हिंद फौज तक। छात्रसंघ ने फौज कोष के लिए पूरा धन दान करने का प्रस्ताव पास किया। इसी कॉलेज के छात्र कृपनंदन ने तिरंगा फहराया, जबकि शहीदे आजम भगत सिंह के चाचा अजीत सिंह ने यहां लॉ की पढ़ाई की और क्रांति में कूद पड़े। दरबारी लाल शर्मा, सतीश कुमार, रमेश चौधरी, दामोदर स्वरूप और कृष्ण मुरारी जैसे कई नाम आज भी इस कॉलेज के इतिहास में सुनहरे अक्षरों में दर्ज हैं।