गहराती खदानें, घटता उत्पादन
मार्बल खदानें अब इतनी गहराई में पहुंच चुकी हैं कि उत्पादन लागत बेतहाशा बढ़ गई है। पहले जो मार्बल सतह से मिल जाता था, अब उसके लिए धरती को चीरकर पाताल तक जाना पड़ रहा है। गहराई में मार्बल की गुणवत्ता भी पहले जैसी नहीं रही। इसके चलते जहां एक ओर गुणवत्ता की कमी आई, वहीं दूसरी ओर बिजली, डीजल और मशीनरी की लागत कई गुना बढ़ गई।
विदेशी टाइल्स ने मार्बल को पटखनी दी
मार्बल उद्योग को सबसे बड़ा झटका विदेशी और सिरामिक टाइल्स से मिला। बाजार में रेडिमेड, आकर्षक और सस्ते टाइल्स की बाढ़ आ गई है। इन टाइल्स की फिनिशिंग शानदार है, इंस्टालेशन आसान और समय भी कम लगता है। जबकि मार्बल में फिटिंग के लिए विशेषज्ञ कारीगर चाहिए, घिसाई और पॉलिशिंग की लागत अलग से आती है। इसके अलावा सिरामिक टाइल्स की प्रचार-प्रसार और ब्रांडिंग भी व्यापक है, जबकि मार्बल के स्वास्थ्य संबंधी फायदे होते हुए भी वह उपभोक्ताओं तक नहीं पहुंच पाए।
गैंगसा यूनिट और कटर भी हुए सुस्त
मार्बल की आपूर्ति घटने से गैंगसा यूनिट और कटर मशीनों का संचालन भी बुरी तरह प्रभावित हुआ है। पहले जो इकाइयां चार-चार शिफ्टों में काम करती थीं, अब वे मुश्किल से एक या दो शिफ्ट में काम कर पा रही हैं। यूनिट मालिकों के सामने बिजली बिल, श्रमिक वेतन और मरम्मत खर्च जैसे सवाल खड़े हो गए हैं। कुछ तो अपनी मशीनें स्क्रैप में बेचने की योजना तक बना रहे हैं। वहीं मार्बल के उत्पादन में गिरावट का असर परिवहन व्यवसाय पर भी पड़ा है। जिले के करीब 350 ट्रक-ट्रेलर में से अधिकांश अब खड़े हैं। पहले जो ट्रेलर महीने में 20 राउंड करते थे, अब 10 भी नहीं कर पा रहे। ट्रक मालिकों के लिए डीजल, टायर, ड्राइवर का वेतन और टैक्स भरना भारी पड़ रहा है। कई ट्रेलर मालिक ट्रक को भंगार में बेचने की हालत में आ गए हैं।
ग्रेनाइट की भी हालत पतली
मार्बल के साथ-साथ ग्रेनाइट उद्योग भी कराह रहा है। पहले जो उत्पाद 1200 प्रति टन में बिकता था, उसकी कीमतें घट गई हैं। सरकार का फोकस इन निष्क्रिय खदानों को लेकर नोटिस भेजने तक सीमित है, जबकि उत्पादन घटने के पीछे के असली कारणों की ओर कोई ध्यान नहीं दे रहा।
श्रमिक बेरोजगार, बढ़ा पलायन
राजसमंद के खनन क्षेत्र में करीब 20 हजार श्रमिक काम करते थे, जिनमें से अब 10 हजार से अधिक बेरोजगार हो चुके हैं। यह बेरोजगारी केवल एक आर्थिक संकट नहीं, बल्कि सामाजिक और पारिवारिक संकट भी है। कई परिवार पलायन कर चुके हैं, तो कई बेरोजगार युवा बड़े शहरों की ओर रूख कर रहे हैं, लेकिन उन्हें भी वहां मजदूरी या अस्थायी काम ही नसीब हो रहा है।
एक नजर आंकड़ों पर
मार्बल खदानें (पहले)- 1006 बंद खदानें- 500 मार्बल कटर यूनिट- 800 गैंगसा यूनिट- 400 ट्रक-ट्रेलर- 350 नियोजित श्रमिक (पहले)- 20,000 बेरोजगार हुए श्रमिक- 10,000 मासिक उत्पादन (2013)- 6,000 ट्रक/ट्रेलर मासिक उत्पादन (2025)- 2,000 से कम ट्रक/ट्रेलर सिरामिक टाइल्स का बाजार- 20 प्रतिशत विदेशी टाइल्स मार्बल- 80 प्रतिशत
मंदी के पीछे ये मुख्य कारण
-गहरी खदानें, बढ़ी लागत गहराई से खनन करने में डीजल, मशीनरी, श्रम और समय की लागत कई गुना बढ़ गई है। -गुणवत्ता में गिरावट: खदानों की गहराई बढ़ने से मिलने वाले मार्बल की क्वालिटी पहले जैसी नहीं रही। -सिरामिक टाइल्स का रेडीमेड विकल्प: आसान इंस्टालेशन और आकर्षक डिज़ाइन ने ग्राहक को अपनी ओर खींच लिया।
-मार्बल की फिटिंग में अधिक समय व खर्च: मार्बल की पॉलिशिंग और फिटिंग लंबा और महंगा काम है। -जनजागरूकता की कमी: आमजन को यह जानकारी नहीं है कि मार्बल स्वास्थ्य के लिहाज से सिरामिक व विदेशी टाइल्स से अधिक अनुकूल है।
इनका कहना है
मार्बल और ग्रेनाइट उद्योग को प्रोत्साहन देने वाले नियम बनें। रॉयल्टी दरें लगातार बढ़ रही है, जिस पर ध्यान दिया जाना जरूरी है। वर्तमान में खंडे का काम शुरू हुआ है। इसका बाजार मूल्य तीस से लेकर पचास रुपए प्रति टन तक हैं। उस पर रवन्ना की दर 164 रुपए लगती है। इतना अंतर होने से उद्योग पर भार पड़ रहा है। खानों को नए सिस्टम में अपडेट किया जाना चाहिए। नई तकनीकी अपनाकर मार्बल को बचाने का काम किया जाए। – गौरव राठौड़, अध्यक्ष, मार्बल माइनिंग एसोसिएशन, राजसमंद