दोनों संग्रहालय केवल वस्तुओं का प्रदर्शन नहीं करते, बल्कि पीढ़ियों से चले आ रहे विश्वास, कला, और जीवनशैली को महसूस कराते हैं। अगर आप छत्तीसगढ़ की असली आत्मा से मिलना चाहते हैं, तो इन दोनों संग्रहालयों की यात्रा कर सकते हैं क्योंकि यहां आप केवल देखेंगे नहीं, बल्कि महसूस करेंगे कि इस मिट्टी में कितनी कहानियां, कितने रंग और कितनी धड़कनें छुपी हैं।
मृत्यु पर बजाने वाला ‘मरनी ढोल’
महंत घासीदास म्यूजियम में सैकड़ों वर्षों पुरानी परंपराएं और दुर्लभ कलाकृतियां सुरक्षित हैं। यहां के वाद्ययंत्र खंड में आपको मिलेगा ‘मरनी ढोल’एक ऐसा वाद्य जो केवल मृत्यु के अवसर पर बजाया जाता था। यह सिर्फ ध्वनि नहीं, बल्कि समाज की भावनाओं और रीतियों का जीवंत प्रतीक है। इसी संग्रहालय में बस्तर दशहरे की झलक भी सजी है। ‘देव झूलनी’ और ‘काछिन गादी’ जैसी परंपराएं यहां विस्तार से दर्शाई गई हैं। कांटों की गादी पर देवी का विराजना, तप और त्याग का गहरा संदेश देती है कि कठिनाइयों के बीच ही शक्ति और विजय का मार्ग निकलता है।
14 गैलरियों में जनजातीय रंग
नया रायपुर का आदिवासी संग्रहालय 14 अनोखी गैलरियों में फैला है। यहां जनजातीय नृत्यों का रंगारंग संसार है। कई दुर्लभ नृत्य रूप, साथ ही बांस से सजे पुराने बाजार के दृश्य। कहीं पारंपरिक संगीत वाद्यों की दुनिया है, तो कहीं पूजा-पाठ और आस्था की झलक। त्योहारों की रंगीन परंपराएं जीवंत होती हैं, तो असली आदिवासी तस्वीरें और उनकी कहानियां मिलती हैं। अंतिम गैलरी विशेष रूप से कमजोर जनजातियों के जीवन और औजारों का दस्तावेज है।