तात्या टोपे की वीरता की कहानी जून 1857 में शुरू हुई, जब मराठा पेशवा बाजीराव द्वितीय के दत्तक पुत्र नाना साहब ने बिठूर से ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ बगावत का बिगुल फूंका। अंग्रेजों की कुख्यात ‘डॉक्ट्रिन ऑफ लैप्स’ नीति के तहत लार्ड डलहौजी ने नाना साहब को पेशवा का उत्तराधिकारी मानने से इनकार कर दिया था। इस अन्याय के खिलाफ नाना साहब ने कानपुर, जो उस समय कंपनी का एक प्रमुख गढ़ था, पर हमला बोला। तात्या टोपे ने इस अभियान में नाना साहब के दाहिने हाथ, सलाहकार और सेनापति की भूमिका निभाई। उन्होंने साम, दाम, दंड और भेद की नीतियों का उपयोग कर अंग्रेजों को आत्मसमर्पण के लिए मजबूर कर दिया।
अंग्रेजों के साथ किया गोरिल्ला युद्ध
कानपुर अभियान के दौरान तात्या ने न केवल सेनापति की भूमिका निभाई, बल्कि दीवान, सलाहकार और मित्र के रूप में भी नाना साहब का साथ दिया। सेना के संगठन, सैनिकों की भर्ती, प्रशिक्षण और वेतन भुगतान जैसे सभी महत्वपूर्ण फैसले उनके हाथ में थे। ग्वालियर की शाही संपत्तियों पर कब्जा कर उन्होंने राजकोष से सैनिकों का वेतन सुनिश्चित किया। इतिहासकारों के अनुसार, तात्या को सैन्य संगठन का कोई पूर्व अनुभव नहीं था, फिर भी उन्होंने अपनी बुद्धिमत्ता और मेहनत से ऐसी रणनीति बनाई कि उनके गुरिल्ला हमले अंग्रेजी फौजों के लिए सबसे बड़ी चुनौती बन गए। वे अचानक हमला कर अंग्रेजों की रसद और संचार व्यवस्था को ठप कर देते थे, जिससे उनकी सेना की कमर टूट जाती थी।
तात्या टोपे ने की थी झांसी की रानी की मदद
जून 1857 में कानपुर पर कब्जा करने के बावजूद, अंग्रेजों के जोरदार जवाबी हमले के कारण 16 जुलाई को तात्या को बिठूर लौटना पड़ा। अंग्रेजी फौजों ने बिठूर तक उनका पीछा किया, जिसके बाद उन्हें वहां से भी हटना पड़ा। लेकिन तात्या ने हार नहीं मानी। नवंबर 1857 में उन्होंने फिर से सेना संगठित की और कानपुर पर कब्जा किया। हालांकि, 6 दिसंबर को अंग्रेजों ने इसे वापस छीन लिया। इसके बाद, जब मार्च 1858 में अंग्रेजों ने झांसी पर हमला बोला, तात्या बड़ी सेना के साथ रानी लक्ष्मीबाई की मदद को पहुंचे। झांसी और कालपी में हार के बाद तात्या ने ग्वालियर पर कब्जा किया, लेकिन 17 जून 1858 को रानी लक्ष्मीबाई की वीरगति और अन्य नेताओं के साथ पलायन ने उन्हें फिर से मुश्किल में डाल दिया। दिल्ली का पतन और बादशाह बहादुरशाह जफर की गिरफ्तारी ने स्वतंत्रता संग्राम को झटका दिया, लेकिन तात्या ने हार नहीं मानी। वे लगातार गुरिल्ला युद्ध और नई रणनीतियों के साथ अंग्रेजों को चुनौती देते रहे।
सैनिकों को अपने पक्ष में कर लेते थे तात्या
पंडित सुंदरलाल की पुस्तक भारत में अंग्रेजी राज में तात्या की रणनीति का वर्णन है। 22 जून 1858 को जावरा अलापुर में अंग्रेजों ने उन्हें घेरने की कोशिश की, लेकिन तात्या भरतपुर की ओर निकल गए। जयपुर और टोंक में भी अंग्रेजों ने उनका पीछा किया, लेकिन तात्या ने चतुराई से टोंक की एक सशस्त्र टुकड़ी को अपनी ओर मिला लिया। वे भारतीय सैनिकों को अपने पक्ष में करने में माहिर थे, जिससे उन्हें अंग्रेजों की योजनाओं की जानकारी मिलती थी। मूसलाधार बारिश और अंग्रेजी सेनाओं के पीछा करने के बावजूद, तात्या ने चंबल नदी पार कर अंग्रेजों को चकमा दिया। ऐतिहासिक दस्तावेजों और तात्या के वंशज पराग टोपे की पुस्तक ऑपरेशन रेड लोटस के अनुसार, तात्या की मृत्यु को लेकर कई भ्रांतियां हैं। आम धारणा है कि 18 अप्रैल 1859 को अंग्रेजों ने ग्वालियर के पास उन्हें पकड़कर सिपरी में फांसी दी। लेकिन पराग टोपे का दावा है कि तात्या राजस्थान-मध्य प्रदेश की सीमा पर छिपाबरोद में एक युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए। एक अंग्रेज मेजर के हवाले से वे बताते हैं कि तात्या सफेद अरबी घोड़े पर सवार थे और उनके साथियों ने उनके पार्थिव शरीर को वहां से हटा दिया। इसके बाद उनके साथियों ने यह अफवाह फैलाई कि तात्या जिंदा हैं, जिससे अंग्रेज कई वर्षों तक भ्रम में रहे।
1863 में ब्रिटिश मेजर जनरल जीएसपी लॉरेंस ने भारत सरकार के सचिव को लिखा था कि 40,000 सैनिक तात्या और उनके 5,000 सैनिकों को पकड़ने के लिए तैयार हैं, जो यह दर्शाता है कि अंग्रेजों को उनकी मृत्यु पर भरोसा नहीं था।
पुणे से बिठूर तक का सफर
1814 में नासिक के येवला गांव में जन्मे तात्या का मूल नाम रामचंद्र पांडुरंग यावतेल था। प्यार से उन्हें तात्या बुलाया जाता था। उनके नाम में ‘टोपे’ जुड़ने के दो कारण बताए जाते हैं: एक, पेशवा बाजीराव द्वितीय द्वारा दी गई विशेष टोपी, और दूसरा, तोपखाने में उनकी रुचि। उनके पिता पांडुरंग की वेद-उपनिषद की विद्वता से प्रभावित होकर पेशवा ने उन्हें पुणे बुलाया था, जहां तात्या भी उनके साथ गए। बाद में बाजीराव के बिठूर जाने पर तात्या का ठिकाना भी वही हो गया। यहीं उनकी मुलाकात नाना साहब और रानी लक्ष्मीबाई से हुई, जिनके साथ उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में अहम भूमिका निभाई।