जब समाज चुप्पी सिखाए, तो सवाल हो जाते जरूरी
ऋतु सारस्वत, समाजशास्त्री एवं स्तंभकार


हाल ही महाराष्ट्र के ठाणे जिले के शाहपुर तहसील के एक अंग्रेजी माध्यम स्कूल से परेशान करने वाली खबर सामने आई जहां स्कूल के बाथरूम की दीवारों और फर्श पर लगे खून के धब्बों की तस्वीरें प्रोजेक्टर पर दिखाई गईं और छात्राओं से पूछा गया कि क्या उन्हें मासिक धर्म हुआ था या नहीं। दीवारों पर ख़ून कैसे लगा? फिर कुछ अध्यापिकाओं को मासिक धर्म वाली लड़कियों के हाथों के निशान लेने को कहा गया और उसके बाद महिला कर्मचारियों को उन लड़कियों को बाथरूम में ले जाने और उनकी जांच करने के लिए उनके कपड़े उतारने के लिए कहा गया था, जिन्हें मासिक धर्म नहीं हुआ था। क्या यह घटना अमानवीय नहीं है? क्या ये छात्राएं जीवनभर इस पीड़ा और अपमान को भूल पाएंगी? आखिर मासिक धर्म को लेकर यह शर्मनाक व्यवहार क्यों? क्या यह समस्या सिर्फ भारत की है या फिर विश्व भर में लड़कियां मासिक धर्म से जुड़ी हुई वर्जनाओं के कारण संत्रास से गुजर रही हैं। मासिक धर्म को लेकर शर्मिंदगी, मासिक धर्म को एक अवांछनीय शारीरिक घटना मानने की सामाजिक धारणा का परिणाम है। मासिक धर्म को एक सख्त नकारात्मक प्रक्रिया के रूप में माना जाता है जो गंदी, घृणित और घिनौनी है। लगभग 70 ईस्वी में रोमन विचारक प्लिनी द एल्डर ने कहा था मासिक धर्म ‘सबसे अजीब प्रभावों का उत्पादक है।’ वह लिखते हैं कि अगर एक मासिक धर्म वाली महिला द्वारा फसल को छुआ जाएगा तो वह मुरझा जाएंगी और नष्ट हो जाएगी, मधुमक्खियां अपने छत्ते छोड़ देंगी। यह अतार्किक कथन किसी न किसी रूप में समाज में स्वीकार किया गया और शताब्दियां बीतने के बाद भी यह सोच अपने अलग-अलग रूपों में कायम रही। 20वीं और 21वीं सदी में मासिक धर्म पर होने वाली चर्चाओं ने इस मुद्दे को लेकर शर्मिंदगी को और मजबूत किया है। मासिक धर्म को एक ऐसी चीज के रूप में चित्रित किया है जिसके बारे में शर्मिंदा होना चाहिए और जिसे छिपाना चाहिए।
1950 में एक महिला पत्रिका ने एक कंपनी के नए पैक किए गए सैनिटरी टॉवल का एक विज्ञापन प्रकाशित किया, जिसमें लिखा था ‘इतनी कुशलता से आकार दिया गया है कि यह नैपकिन बॉक्स जैसा न लगे, जिससे सबसे तेज आंखें भी अनुमान नहीं लगा सकें कि पैकिंग के अंदर क्या है।’ यह विज्ञापन समाज की उस सोच का संदेश वाहक था, जो कि यह बताती है कि मासिक धर्म छिपाना चाहिए। विश्व का शायद ही ऐसा कोई देश होगा, जहां मासिक धर्म पर सहज एवं सामान्य संवाद होता हो। लड़कियों को मासिक धर्म के बारे में चुप्पी बनाए रखने की शिक्षा दी जाती है, यह वर्जना मासिक धर्म के बारे में बात करने को सामाजिक रूप से अस्वीकार्य बनाती है। शोध इस बात की पुष्टि करते हैं कि लोग मासिक धर्म के बारे में बात करने में सहज महसूस नहीं करते हैं। पीरियड शेमिंग (मासिक धर्म को लेकर शर्मिंदा करना) एक अपमानजनक रूप से कायम रवैया है। क्या यह दुर्भाग्यपूर्ण नहीं है कि समाज एक स्वस्थ प्रजनन प्रणाली के लिए एक महिला को शर्मिंदा करता है? जब मासिक धर्म और उससे संबंधित चर्चा की बात आती है, तो सामाजिक दोहरे मानक बिल्कुल स्पष्ट हो जाते हैं। एक ऐसे समाज में जहां हम एक महिला की प्रजनन क्षमता को इतना महत्त्व देते हैं, वहीं हम गंभीर प्रजनन स्वास्थ्य चिंताओं के बारे में बात करना पसंद नहीं करते हैं। ऑस्ट्रेलिया में, 2019 में प्राइम टाइम टीवी पर एक कंपनी का विज्ञापन प्रसारित हुआ, जिसमें एक सैनिटरी पैड में ब्लड दिखाया गया, इससे लोगों में आक्रोश फैल गया। विज्ञापन मानक बोर्ड को 500 से ज्यादा शिकायतें मिलीं, जिनमें दावा किया गया कि विज्ञापन आपत्तिजनक, अश्लील और ‘परिवार के साथ देखने’ के लिए अनुपयुक्त था। यह शिकायतें स्पष्ट करती हैं कि मासिक धर्म, दुनिया भर में एक वर्जित विषय है। जर्नल ऑफ रिप्रोडक्टिव एंड इन्फेंट साइकोलॉजी में प्रकाशित शोध ‘गल्र्स एक्सपीरियंसेज ऑफ मीनार्क एंड मेनस्ट्रुएशन’ ने ब्रिटेन में किशोरियों का अध्ययन किया। उत्तरदाताओं ने बड़े पैमाने पर नकारात्मक विचार व्यक्त किए और उनके विवरणों में मासिक धर्म को शर्मनाक और ऐसी चीज के रूप में प्रस्तुत किया गया, जिसके बारे में सार्वजनिक रूप से या निजी तौर पर भी चर्चा नहीं की जानी चाहिए।
‘ऑन फीमेल बॉडी एक्सपीरियंस: थ्रोइंग लाइक अ गर्ल एंड अदर एसेज’ पुस्तक के लेखिका आइरिस मैरियन यंग ने गोपनीयता के इस सांस्कृतिक निर्देश को ‘मेनस्ट्रुअल क्लोजेट’ के रूप में संदर्भित किया है। यंग लिखती हैं ‘मासिक धर्म के बारे में हमारी शुरुआती जागरूकता से लेकर उस दिन तक जब हम रजोनिवृति नहीं हो जाती, हम अपनी मासिक धर्म प्रक्रियाओं को छिपाने की अनिवार्यता के प्रति सचेत रहते हैं।’ यंग का कटाक्ष मासिक धर्म के प्रति संकीर्ण सोच और उसके इर्द-गिर्द रची गई वर्जनाओं और पाबंदियां पर है। सांचेज एरिका ने अपने शोध ‘ओपिनियन: मेनस्ट्रुएशन स्टिग्मा इज अ फॉर्म ऑफ मिसोगिनी’ में बताया कि मासिक धर्म से जुड़े कलंक का महिलाओं के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य, कल्याण और सामाजिक स्थिति पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। उन्होंने तर्क दिया कि जब तक हम इस धारणा को नहीं छोड़ेंगे कि मासिक धर्म शर्मनाक है, तब तक हम महिलाओं के प्रति घृणित व्यवहार को समाप्त नहीं कर पाएंगे।
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