सरकारी भूमि पर अतिक्रमण का रोग कोई नया नहीं है। अतिक्रमण भी केवल शहरी या आबाद जमीन पर ही नहीं, बल्कि खेती की जमीन पर भी होता रहा है। सरकार का यह भी रवैया रहा है कि जब-जब अतिक्रमण काबू से बाहर हो गए, नियमित कर दिए गए। सरकार की संकल्पहीनता एवं अकर्मण्यता का स्पष्ट प्रमाण सरकारी दस्तावेज ही है। जयपुर जैसी किसी प्रदेश की राजधानी में ही अगर मास्टर प्लान बेकार सिद्ध हों तो दूसरे शहर क्यों पीछे रहेंंगे? यथार्थ तो यह है कि सरकारी भूमि पर सरकार स्वयं ही अतिक्रमण करती है। सरकार से सम्बद्ध कर्मचारियों को यह अच्छी तरह मालूम होता है कि सरकारी जमीन कहां और कितनी है। यह मालूम होना उसकी नौकरी का हिस्सा भी है। लेकिन यहां नौकर अपने आपको मालिक समझता है। वह अपनी आंखों के सामने सरकारी जमीन पर अवैध मकान बनवाता है। मकान बनने के हर दौर में वह चौथ वसूली करता रहता है। इस चौथ की बांट बड़े नौकरशाहों की जेब में भी पहुंचती है। हो सकती है कि मंत्री या उसके ‘लग्गू-भग्गू’ भी इसमें हाथ मारते हों। बड़े पैमाने पर मसला जब चुनावों के दौरान उठाया जाता है तो नियमित करने के आश्वासन मिल जाते हैं। इस तरह आज के ‘राजा’ अवैध मकान और बस्तियां बढ़ाते जा रहे हैं। हिसाब सीधा-सीधा है। सरकारी जमीन पर मकान बनाने वाले को जमीन का पैसा नहीं चुकाना पड़ता। उसका एक अंश नौकर झाड़ लेता है और उसे राजनेताओं तक पहुंचाता रहता है। सभी की मिलीभगत और सभी की चांदी है। कितनी ‘चांदी की खाद’ सरकारी या सहकारी जमीनों में पड़ चुकी है उसका आकलन करना कठिन है पर इससे जो फसल उपज रही है वह पूरे समाज को सड़ाने वाली है। शासकों की अयोग्यता के कारण लोकतंत्र बदनाम होता है। निकम्मे लोग यह धारणा फैलाते हैं कि लोकतंत्र में सख्ती से काम लेना संभव नहीं है। सख्ती का लोकतंत्र से क्या सरोकार है? लोकतंत्र का मतलब तो है कानून से काम करना और लोकहित की भी रक्षा करना। सरकारी भूमि पर अतिक्रमण रोकने के लिए सख्ती की कहां जरूरत है? गैरकानूनी तौर पर मकान बनाने वाला कभी सरकार से, सरकारी नौकर से लडऩे को तैयार नहीं होगा और उसके रोकने पर मकान बनाने की जोखिम भी नहीं उठाएगा।
(26 जुलाई 1995 के अंक में ‘अतिक्रमण, नियमन और भंजन’ आलेख से)
नेतृत्व की मिसाल
सीकर जिले की बाय पंचायत में गजानंद शर्मा 4-5 साल से सरपंच हैं। ग्राम सभा में उन्होंने तय किया कि बाजार में जो थडिय़ां लगी हुई हैं उन्हें हटा दिया जाए, उन्हें दूसरी जगह पक्की दुकानें बनाने की सहूलियत दी जाए। बाजार में जहां कहीं नाजायज चबूतरियां, पैडिय़ां और तामीरात हो उन्हें हटा दिया जाए और वे हटा दी गईं। बाजार में पक्की नालियां बनवा दी गई हैं। जयपुर की तरह गांव का बाजार गुलाबी रंग में करा दिया गया। सरपंच गजानंद शर्मा ने बताया कि इक्के-दुक्के लोग अतिक्रमण हटाने से नाराज भी हैं, उनकी नाराजगी दूर कर दूंगा (वर्ष 1975-76 में कुलिश जी की यात्रा वृत्तांत आधारित पुस्तक
‘मैं देखता चला गया’ से )
…और, यह जयपुर का हाल जयपुर में एक भी मकान ऐसा नहीं है जो जबर्दस्ती किसी ने बना लिया हो और जिसे सरकार ने रोका हो। सभी अवैध निर्माण नौकर और राज की बदनीयती या नाकाबिलियत से हुए हैं। अन्य शहरों में भी यह बात लागू होती है। जो भी मकान बनते हैं वे अजमेर के ढाई दिन के झोंपड़े की तरह नहीं बनते हैं। बड़े-बड़े व्यावसायिक परिसरों के बनने में कई साल लगते हैं। इनको बताने के लिए सी.आई.ए. जैसी गुप्तचर एजेन्सी की जरूरत नहीं। सरकार की जानकारी में होता है और होता ही रहता है। जिस किसी अफसर की जिम्मेदारी अवैध निर्माण को रोकने की होती है उसी की निगरानी में सब कुछ होता है। क्या मजाल कि आज तक किसी नौकर को आंच आई हो? जयपुर में ऐसे-ऐसे नौकरशाह भी इस काम पर रहे हैं जिन्हें लोग ‘डाकू’ कहा करते थे। किसी का बाल भी बांका नहीं हुआ। कौन करे, नौकर ही तो राजा है।
(कुलिश जी के आलेखों पर आधारित पुस्तक ‘दृष्टिकोण’ से)