इस मनमानी को देखना हो तो ये दो उदाहरण काफी हैं। पहला- बाड़मेर और जैसलमेर में चल रहा सौर ऊर्जा क्षेत्र विकास का काम और दूसरा, जयपुर में तारों की कूट के पास डोल का बाढ़ क्षेत्र में लगभग 100 एकड़ क्षेत्र में पनपे जंगल के सफाए का कार्य। दोनों ही क्षेत्रों में स्थानीय जनता आंदोलन कर रही है। इस विनाशकारी विकास को टालने के उपाय भी सुझाए गए हैं। पर राजनेताओं को अफसरों की आंखों से देखने और उनके कानों से सुनने की आदत है। जनता की कराह उनके कानों तक पहुंचती ही नहीं है।
डोल का बाढ़ क्षेत्र की जमीन होने को तो औद्योगिक क्षेत्र के रूप में चिह्नित है, पर पिछले 40 वर्षों में इस जमीन पर 85 प्रकार की प्रजातियों वाला 2500 पेड़ों का जंगल विकसित हो चुका है। पिछली सरकार ने 2021 में इसी जमीन पर ‘फिनटेक’ परियोजना पर काम शुरू किया था जो जनता के विरोध के बाद रुक गया। अब नई सरकार को इस जमीन की याद आ गई और यूनिटी माल, मंडपम् जैसी योजनाओं के लिए वह इस जंगल को उजाड़ने पर उतारू है। तीन सौ पेड़ तो काटे जा चुके हैं। सरकार और अफसर हरित पट्टिका का भूउपयोग बदलवाने के लिए तो सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचने में गुरेज नहीं करते पर औद्योगिक से वन क्षेत्र में भूउपयोग बदलवाने में उनके सामने कानून आड़े आ जाता है।
यही हाल सीमावर्ती जिलों में चल रही सौर ऊर्जा विकास योजना का है। निजी कंपनियां सरकारी अफसरों और पुलिस के सहयोग से किसानों के खेतों पर हाइटेंशन लाइन के खम्भे जबरन खड़े करने पर आमादा हैं। विद्युत विभाग इन कंपनियों का आंख मूंद कर इस कार्य में मदद कर रहा है। वैसे भी भ्रष्टाचार के मामले में यह विभाग परिवहन विभाग से पूरी होड़ लेने में लगा हुआ है। हाइटेंशन लाइन के एक खम्भे से एक बीघा जमीन खेती के योग्य नहीं रहती। तीन-चार खम्भे वाले तो पूरे खेत बर्बाद हो रहे हैं। किसानों की कोई सुनवाई नहीं हो रही। पटवारी से लेकर कलक्टरों तक ने कानों में रुई डाल ली है। निजी कंपनियों ने सेवानिवृत प्रशासनिक और पुलिस अधिकारियों के नेतृत्व में दबंग पाल रखे हैं जो रातों-रात किसानों के खेतों में घुस कर खम्भे खड़े कर देते हैं। विरोध करो तो उलटे किसानों पर ही मुकदमे !
कौन नहीं चाहता कि राजस्थान का विकास हो। पर विकास बिना प्रकृति, स्वास्थ्य, जनता की रोजी-रोटी और संस्कृति को नुकसान पहुंचाए होना चाहिए। हमारे ज्यादातर अफसर दिमागी तौर पर अंग्रेज हैं। उन्हें इन सब बातों से कोई लेना-देना नहीं है। भले ही ‘विनाशकारी’ विकास हो, उन्हें कोई मतलब नहीं।
एक सर्वे के अनुसार डोल का बाढ़ क्षेत्र में लगे जंगल सालाना 8 से 10 हजार टन कार्बन डाई ऑक्साइड सोख लेते हैं। यह जंगल ढाई सौ टन ऑक्सीजन पैदा करता है। पीएम 2.5 जैसे स्वास्थ्य के लिए हानिकारक तत्वों को हटाता है। प्रति वर्ष लाखों लीटर पानी भूतल में रिचार्ज करता है। पक्षियों की सैंकड़ों प्रजातियां वहां रहती हैं।
सबसे बड़ी बात जयपुर शहर के पास आज ऐसे वन क्षेत्रों की आवश्यकता बढ़ती जा रही है, खासतौर से शहर के दक्षिणी हिस्से में। लेकिन इसकी किसे चिंता। सरकार चाहे तो जंगल बचाकर औद्योगिक परियोजना को कुछ दूर ले जा सकती है। सौर ऊर्जा के लिए खम्भे खड़े करने के मामले में तो सुप्रीम कोर्ट 2021 में भूमिगत लाइनें बिछाने के निर्देश दे चुका है। एक सुभाव यह भी है कि हाइटेंशन लाइनों के लिए एक व्यवस्थित कॉरीडोर बना दिया जाए ताकि खेत बच सकें। पर इसके लिए कंपनियों को कुछ ज्यादा पैसा खर्च करना पड़ेगा। और हमारे लिए कंपनियां सब कुछ हैं और किसान कुछ भी नहीं।
सरकार और अफसर कहते हैं कि जिसको इन कार्रवाइयों से परेशानी हो, वे अदालत में जाएं। सबको मालूम है अदालती लड़ाई में समय और पैसा दोनों बर्बाद होते हैं। होना तो यह चाहिए अदालतों में जनता से जुड़े ऐसे मामलों के लिए विशेष बैंच गठित की जाए ताकि आम लोगों पर होने वाली मनमानियों पर अंकुश लग सके। अन्यथा विकास के नाम पर विनाश ऐसे ही होता रहेगा।