scriptशरीर ही ब्रह्माण्ड – शब्द और अर्थ स्त्री की कलाएं | Patrika Editor In Chief Gulab Kothari Special Article On 14th June 2025 Sharir Hi Brahmand Words And Meanings The Art Of Women | Patrika News
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शरीर ही ब्रह्माण्ड – शब्द और अर्थ स्त्री की कलाएं

शब्द भी वाक् है जिसकी तरंगें प्रभावित करती हैं। हमारा शरीर तरंगों, मंत्र ध्वनियों से निर्मित होता है। रक्त ध्वनियों को सोख लेता है। विवाह काल में जितने भी मंत्र बोले जाते हैं वे पति-पत्नी तथा दुल्हन के माता-पिता दोनों के भीतर सूक्ष्म स्तर को प्रभावित करते हैं।

जयपुरJun 14, 2025 / 08:15 am

Gulab Kothari

-गुलाब कोठारी

आत्मा षोडशकल है। अव्यय आलम्बन है। अक्षररूप सूर्य पिता है, आत्मा का पर्याय भी है। मन-प्राण-वाक् को मृत्युलोक के प्राणियों का आत्मा कहा है। मन अव्यय है, प्राण सूत्र है, वाक् वस्तु है। लक्ष्मी अर्थवाक् है, सरस्वती शब्दवाक् है। पृथ्वी लक्ष्मी है, वाक् का घनरूप है। अन्तरिक्ष और द्युलोक इसका तरल एवं विरल रूप है। पृथ्वी की अग्नि का यह घन-तरल-विरल रूप है। सोम ही नीचे आकर अग्नि रूप ले लेता है। मानव शरीर भी अग्नि का घनरूप है, बुद्धि तरल तथा मन विरल रूप है।
सृष्टि वाक् है—मन, प्राणगर्भित वाक्। मन की कामना प्रकृति पर आधारित है। प्राण कामना को गतिमान करता है। कामना हृदय से उठती है, ब्रह्मा-विष्णु-इन्द्र प्राणों से उठती है। अक्षर ही हर एक कर्म के पीछे कारण है। लक्ष्मी अर्थरूप में शरीर के भू भुव:, स्व:, ही वाक्-प्राण-मन हैं। ॐ आत्मरूप है। सरस्वती परा-पश्यन्ति-मध्यमा-वैखरी रूप वाणी (शब्दवाक्) की अधिष्ठात्री हैं। इनका स्वरूप मन की इच्छा पर, अर्थात् अन्न के स्वरूप पर टिका होता है। अन्न की मां पृथ्वी ही तो मूल में लक्ष्मी है। अन्न ही धन है।
एक ही अन्न से स्त्री-पुरुष शरीरों का पोषण होता है। किन्तु विचारों के स्पन्दन में एकरूपता नहीं होती। रक्त का मार्ग भिन्न हो जाता है। पुरुष देह में सप्त धातुओं के क्रम में शुक्र बनता है। आगे ओज और मन बनता है। स्त्री देह में रक्त संचार का तंत्र भिन्न है। रक्त का ही एक भाग शोणित बनता है। रक्त से ही आर्तव निकलता है ऋतुकाल में। मां के गर्भ में स्त्री-पुरुष की पहचान मां ही करती है। दोनों का आत्मा समान होता है, फिर भी देह की भिन्नता का ज्ञान होना एक बड़ी उपलब्धि ही कही जाएगी। शिक्षित वर्ग के लिए तो यह कार्य उपकरण करते हैं।
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मां का ज्ञान यहां भी सूक्ष्म कर्म करता जान पड़ता है। क्या लड़का-लड़की रूप शिशु का आहार भिन्न होगा? क्या मां के अन्न में अन्तर आएगा? मां को पता है कि दोनों का जीवन चक्र, प्रकृति, भूमिका भिन्न होगी। तब उसके प्रशिक्षण में क्या अन्तर होता होगा? इस तथ्य को समझ लेना और क्रियान्वित करना कोई साधारण बात नहीं हो सकती। अनभिज्ञ होने में तो कुछ लगता ही नहीं। दोनों शरीरों का तंत्र विपरीत भी है। पुत्र के शरीर में नई पीढ़ी का बीज तैयार होगा। उसे एक पेड़ के रूप में तैयार होना होगा। पुत्र शरीर में मज्जा से शुक्र का निर्माण होगा, जिसकी स्त्री शरीर में कोई आवश्यकता नहीं होती। इसी शुक्र में पिछली सात पीढ़ियों के अंश भी आकर मिलते हैं। विवाह के समय इसी में श्वसुर के भी सात पीढ़ियों के अंश मिलते हैं। चन्द्रमा से प्रतिदिन एक ‘सह’ आकर शुक्र में जुड़ता है। २८ दिनों के सहों का एक सहपिण्ड (बीज) तैयार हो जाता है। इसी आधार पर सम्पूर्ण प्रजनन तंत्र की रचना होती है, अंग-प्रत्यंग बनते हैं। स्त्री शरीर की रचना ग्रहणकर्ता के रूप में ‘आकाश’ रूप होती है। उसका प्रजनन तंत्र भी चन्द्रमा से ही संचालित होता है। २८ दिनों के चन्द्रमास द्वारा उसके ऋतुकाल का संचालन होता है। गर्भकाल में शिशु का निर्माण, पोषण, संवाद का अतिसूक्ष्म तंत्र और उसके उपयोग का ज्ञान, दुग्ध निर्माण तंत्र, जीव से संवाद और संस्कार निर्माण भी किसी विश्वविद्यालय से कम नहीं।
स्त्री शरीर की जटिलता अपने आप में एक विश्व है। मां द्वारा शिशु के पिछले शरीर का ज्ञान कर पाना, उसको नई देह के अनुरूप प्रशिक्षित करना भी किसी विशेष प्रज्ञा से ही संभव हो सकता है। ऋतुकाल में जो रक्त बाहर निकलता है, उसे रोककर शिशु शरीर के निर्माण में लगाना है। स्त्री शरीर मानो एक रोबोट है। इस रोबोट को तैयार भी स्त्री ही करती है। कन्या शरीर में भी उसका प्रजनन तंत्र, पोषण-तंत्र आदि का कार्य मां के अवचेतन मन से संचालित होता है। स्त्री (कन्या) के आत्मा को मां बनाना है। उसमें स्त्रैण गुणों को प्रवाहित करना है। अर्द्धनारीश्वर भी बनाना है। सबसे कठिन कार्य है गर्भस्थ कन्या के शरीर और आत्मा का भेद समझाना। आत्मा तो पूर्ण चेतन ही होता है। तभी तो संस्कार दिए जा सकते हैं। कन्या का सूक्ष्म पति के सूक्ष्म से युक्त होना होता है। सूक्ष्म के माध्यम से पति के आत्मा को नियंत्रित करना होता है।
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स्त्री को अर्थब्रह्म/शब्दब्रह्म का स्थूल ज्ञान होता है। पति का निर्माण, पति की निवृत्ति, पति का मोक्षादि सारा भार स्त्री के कंधों पर ही रहता है। अन्न का नियंत्रण तो प्रत्यक्ष दिखाई पड़ता है। स्वयं भी सात्विक जीवन जीती है। शब्दब्रह्म में पूजा, जप, कीर्तन आदि का प्रयोग करके रक्त की शुद्धता निश्चित करती है। आत्मा के चारों ओर प्रसन्नता-माधुर्य का वातावरण बनाती है। लोरियां/कथाएं सुनाती है। शब्द भी वाक् है जिसकी तरंगें प्रभावित करती हैं। हमारा शरीर तरंगों, मंत्र ध्वनियों से निर्मित होता है। रक्त ध्वनियों को सोख लेता है। विवाह काल में जितने भी मंत्र बोले जाते हैं वे पति-पत्नी तथा दुल्हन के माता-पिता दोनों के भीतर सूक्ष्म स्तर को प्रभावित करते हैं। तभी विवाह को हम आत्मा का रूपान्तरण कर्म कहते हैं। विवाह दो आत्माओं-सात पीढ़ियों की साक्षी में होता है। यह कर्म स्थूल स्तर पर नहीं हो सकता। पुरुष को बहुत स्पन्दन समझ में नहीं आते। अनुभूति भी नहीं होती। दुल्हे के लिए विवाह आज तो मनोरंजन बनकर रह गया। जल्दी पूरा करने के लिए पुरोहित को रिश्वत तक देने लगे हैं। जबकि विवाह तो आत्मसात करने का कर्म है।
शब्द की उत्पत्ति का कारण वाक् है। वाक् व्यापक है, सृष्टि में कोई स्थान ऐसा नहीं जहां वाक् व्याप्त न हो। वाक् में आघात लगने पर तरंगे उठती हैं जो कान में श्रोत तन्त्र पर आघात करती हैं तब शब्द उत्पन्न होता है। शब्द भी अन्न है। हमारी स्थूल सृष्टि अन्न से ही होती है। यह अन्न ही जीवात्मा का यात्रा का मार्ग है। शब्द नाद रूप में आकाश का गुण है, अत: पांचों महाभूतों में इसका प्रवेश है। यह भी कह सकते हैं कि पांचों महाभूत शब्द से ही उत्पन्न होते हैं। रक्त को प्रभावित करने के कारण आगे की सभी धातुएं प्रभावित हो जाती हैं। शुक्र-शोणित के मूल स्रोत प्रभावित होते हैं। लोरियाें से जुड़े भाव भी मन को प्रभावित करते हैं। व्यक्तित्व निर्माण का सारा कार्य शब्दब्रह्म से होता है। शरीर का क्षेत्र है। अत: निर्माण में मां के गर्भ में सरस्वती और लक्ष्मी दोनों का भूमिका है। समझ के स्तर पर स्त्री को गुरु बृहस्पति एवं असुर गुरु शुक्राचार्य की नीतियों में पारंगत माना गया है।
क्रमश: gulabkothari@epatrika.com

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