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सम्पादकीय : अस्पतालों में चूहों के आतंक की दर्दनाक तस्वीर

चिकित्सालयों में जब ये स्थान ही लापरवाही का शिकार हो जाएं तो ऐसा लगता है कि अस्पताल में गहन चिकित्सा के इन केंद्रों को खुद की ही गहन जांच की जरूरत है।

जयपुरSep 02, 2025 / 07:58 pm

pankaj shrivastava

प्रतिकात्मक फोटो

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मध्यप्रदेश में इंदौर के सबसे बड़े सरकारी अस्पताल में नवजात शिशुओं को चूहों द्वारा कुतरे जाने की घटना चिकित्सा सेवाओं में सुधार के सरकारी दावों की पोल खोलने वाली है। इंदौर के एमवाय अस्पताल में ये दोनों नवजात गहन चिकित्सा इकाई (एनआइसीयू) में रखे गए थे। इन बच्चों में से एक की मौत होना समूचे सिस्टम पर सवाल खड़े करने वाला इसलिए भी है कि अस्पतालों में आइसीयू व एनआइसीयू एक तरह से मरीजों और उनके परिजनों का यह भरोसा जगाने वाले होते हैं कि यहां आने के बाद मरीज जल्द ठीक होगा। क्योंकि इन पृथक चिकित्सा इकाइयों में लगातार निगरानी के लिए मरीजों को भर्ती किया जाता है। ऐसी ही निगरानी की उम्मीद एनआइसीयू में नवजातों के मामले में भी की जाती है।
चिकित्सालयों में जब ये स्थान ही लापरवाही का शिकार हो जाएं तो ऐसा लगता है कि अस्पताल में गहन चिकित्सा के इन केंद्रों को खुद की ही गहन जांच की जरूरत है। ज्यादा पुरानी बात नहीं है, मई माह में पटना के नालंदा मेडिकल कॉलेज में भर्ती एक अक्षम मरीज ने शिकायत की थी कि सोते वक्त चूहे ने उसकी पैरों की अंगुलियां काट लीं। बीते वर्ष फरवरी में तेलंगाना में कामारेड्डी अस्पताल के आइसीयू में भर्ती मरीज के पैरों और अंगुलियों पर चूहों के कुतरने के निशान मिले। ऐसा ही मामला झारखंड के गिरीडीह के सरकारी अस्पताल में भी हुआ, जहां तीन दिन के नवजात को चूहों ने कुतर दिया था।
कोई एक-दो नहीं, बल्कि पिछले वर्षों में ऐसे दर्जनों मामले सामने आए हैं, जहां अस्पतालों में चूहों का उत्पात देखने में आया है। हैरत की बात यह है कि इनमें से अधिकांश मामलों में दोषियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करने के बजाय संबंधित अस्पताल ने लीपापोती का काम ही किया। ज्यादा दबाव पड़ा तो अस्पताल में एकाध के निलम्बन की कार्रवाई होकर रह गई। हैरत इस बात की है कि नवजातों के मामले में ऐसी लापरवाही पर चिकित्सक मौत का कारण कुछ और बता देते हैं ताकि बचाव हो सके। प्राथमिक जांच में उन पर कभी कार्रवाई होती नजर नहीं आती, जो अस्पतालों में प्रबंधन के लिए जिम्मेदार होते हैं। सवाल सिर्फ चूहों के कुतरने का ही नहीं है, नवजात गहन चिकित्सा इकाइयों में कभी चीटिंयां तो कभी ऑपरेशन थियेटरों तक में कॉकरोच नजर आ जाते हैं। अस्पतालों में बिजली की वायरिंग में खामी से भी कई बार आग लगने जैसे हादसे होते हैं।
सरकारी अस्पतालों के लिए सरकारें हर साल करोड़ों रुपए का बजट प्रावधान करती हैं। चिकित्सा उपकरणों की भी खूब खरीद होती है लेकिन भर्ती होने वाले मरीज जब ऐसी लापरवाही का शिकार हो जाएं तो दोष किसको दें? सरकारी अस्पतालों की अव्यवस्थाएं भी मरीजों को महंगे निजी अस्पतालों में जाने को मजबूर करती हैं। लापरवाही से होने वाली मौतों को एक तरह से ‘भरोसे की मौत’ ही कहा जाना चाहिए।

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