सम्पादकीय : सिर्फ सफलता नहीं, शिक्षा बने जीवन दृष्टि का आधार
केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय द्वारा हाल में कोचिंग पर छात्रों की निर्भरता कम करने के लिए कमेटी का गठन सराहनीय कदम ही कहा जाएगा।


लम्बे समय से भारत में शिक्षा व्यवस्था असमानता और व्यावसायिकता की शिकार बनती दिख रही है। इस माहौल के बीच केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय द्वारा हाल में कोचिंग पर छात्रों की निर्भरता कम करने के लिए कमेटी का गठन सराहनीय कदम ही कहा जाएगा। लेकिन सवाल यह भी है कि कमेटी का गठन महज औपचारिकता बनकर ही रह जाएगा या फिर कोई ठोस सुझावों के साथ बदलाव के सुझाव सामने आएंगे। यह सवाल इसलिए भी क्योंकि हमारे देश में कोचिंग का कारोबार लगातार फल-फूल रहा है। इतना ही नहीं, प्रतियोगी परीक्षाओं में सेंध लगाते हुए कई कोचिंग संस्थान तो सरकारी नौकरियों की भर्ती परीक्षा तक को प्रभावित करने लगे हैं। कोचिंग संस्थानों के जरिए पढ़ाई से न केवल विद्यार्थियों को दी जा रही शिक्षा की गुणवत्ता पर सवाल उठते हैं, बल्कि सामाजिक और आर्थिक असमानता को पनपाने का बड़ा कारण भी बनता है।
यूरोपीय देशों में, विशेष रूप से फिनलैंड, स्वीडन और जर्मनी जैसे देशों में, शिक्षा व्यवस्था समावेशी और समानता वाली है। इन देशों में स्कूल ही प्राथमिक शिक्षा का केंद्र होते हैं, जहां गुणवत्तापूर्ण शिक्षण, आधुनिक पाठ्यक्रम और व्यक्तिगत विकास पर ध्यान दिया जाता है। कोचिंग का कोई अलग सिस्टम नहीं है, क्योंकि स्कूलों में ही प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कराई जाती है। अधिकांश यूरोपीय देशों में शिक्षा मुफ्त या न्यूनतम शुल्क पर उपलब्ध है। इसके विपरीत, भारत में पिछले सालों में स्कूली स्तर पर ही शिक्षा प्रणाली कमजोर पड़ चुकी है। मोटी फीस लेने वाले अधिकांश निजी स्कूल भी अक्सर अपर्याप्त शिक्षण प्रदान करते हैं, जिसके चलते अभिभावक और छात्र कोचिंग पर निर्भर हो जाते हैं। यह स्थिति विशेष रूप से शहरी क्षेत्रों में गंभीर है, जहां प्रतियोगी परीक्षाओं जैसे जेईई, नीट और यूपीएससी की तैयारी के लिए कोचिंग सेंटर के माध्यम से पढ़ाई की अनिवार्यता महसूस होने लगी है। कोचिंग व्यवस्था अमीरों के लिए तो सुलभ है, लेकिन गरीब और मध्यमवर्गीय परिवारों के लिए यह बड़ा बोझ बन चुकी है। कोचिंग की ऊंची फीस और बड़े शहरों में रहने की लागत के कारण गरीब परिवारों के बच्चे इस दौड़ से बाहर हो जाते हैं। यह स्थिति भारत जैसे लोकतांत्रिक देश के लिए चिंताजनक है, जहां संविधान सभी को समान अवसर की गारंटी देता है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में शिक्षा सभी के लिए सुलभ होनी चाहिए, लेकिन भारत में बार-बार कमेटियां गठित होने के बावजूद कोई ठोस परिणाम नहीं निकलता। एनसीईआरटी और यूजीसी जैसे संस्थान भी इस दिशा में प्रभावी कदम नहीं उठा पाए हैं।
सरकार को चाहिए कि स्कूली शिक्षा को सशक्त किया जाए। शिक्षक प्रशिक्षण पर निवेश होना चाहिए और प्रतियोगी परीक्षाओं के पाठ्यक्रम को स्कूली कोर्स से जोड़ा जाए। शिक्षा का उद्देश्य सिर्फ प्रतियोगी परीक्षाओं में सफलता नहीं, बल्कि व्यक्तित्व विकास व समाज के लिए योगदान होना चाहिए।
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