हुक्मरान कहते हैं, जब पानी भरपूर है तो लोग क्यों प्यासे हैं? अजब मंजर है, जिनको जवाब ढूंढना है वो सवाल पूछ रहे हैं। जिनको जवाब देना है, वो चुप लगा रहे हैं। जिनको पानी चाहिए, वो टकटकी लगाए नल को देख रहे हैं। उनको आस है कोई तो उनकी बात उठाएगा। कभी तो नलों से पानी आएगा और इतनी देर आएगा, जिससे उनकी जरूरत पूरी हो सकेगी, जिनको बात उठाने के लिए नुमाइंदा बनाया है, वो पानी के मुद्दे पर चुप हैं। पहले नहरबंदी का बहाना था। नहरबंदी भी दूर हुई। कुछ दिन में नहर में दौड़ रहा पानी भी यहां पहुंच जाएगा।
सवाल बदस्तूर खड़ा है? क्या बाहरी कॉलोनियों के लिए पानी का इंतजाम हो पाएगा? क्या उनको टैंकरों के मायाजाल से मुक्ति मिल सकेगी? क्या अफसरों का अमला डीपीआर के लबे थकाऊ खेल से बाहर निकल कर लोगों को तत्काल राहत के कोई इंतजाम कर पाएगा? आगे भीषण गर्मी का दौर आने वाला है। यह अफसरों की अग्निपरीक्षा होगी। क्या वो मृगमरीचिका से परे वाकई लोगों की प्यास बुझा पाएंगे? क्या कोई ऐसी कारगर योजना बना पाएंगे, जिससे लोगों को टैंकरों के माफियाराज से मुक्ति मिल सके? हो जाएगा तो लोग दुआएं देंगे। नहीं तो, यहां के लोग तो स्वभाव से ही सहनशील हैं और सदियों से कम पानी में जीवन चलाना संस्कृति का अंग रहा है।
मुस्कुरा कर यह मुसीबत भी सह लेंगे। पर जिनकी जिम्मेदारी है उनसे भी तो कोई हिसाब किताब पूछे। नहीं तो यह मुगालता नहीं रहे कि लोग भूल जाएंगे। जनता वक्त आने पर पूरा हिसाब किताब ब्याज समेत करेगी। उनको ध्यान रखना होगा कि प्यास का यह हिसाब कहीं भारी ना पड़ जाए।